शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

एक नई दुनिया



एक नई दुनिया 
बसा लेती हूँ अपने भीतर 
मैं, कभी-कभी 

एक गुलाबी सा उजाला 
फैला रहता है उसमें 
सुगन्धित हवाएँ 
वहाँ विचरती रहती हैं 
हरियाली
कहकहे लगाती है
शेर के पंजे में चुभा काँटा
एक नन्हीं चिड़िया निकालती है

इस दुनिया में
बड़ी इज़्जत है
हवाओं की,पानियों की
यहाँ तक कि
हरी दूब की भी

मैं तो बयान भी नहीं कर सकती
लेखनी चलने से इनकार कर देती है

मैं तो बस
गुलाबी उजाले में ही
घूमती-फिरती
अपनी दुनिया पर
इठलाया करती हूँ

हाथी के दाँत
हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और, लेकिन बच्चों को उसके खिलौने के दाँत प्रिय थे, क्योंकि वे सुंदर थे। बड़ों को भी वे प्रिय थे, क्योंकि कीमती थे। एक बार बच्चे हाथी के पास गए। उन्होंने कहा-- "हाथी दादा, हाथी दादा, अपने दाँत हमें दे दो।"
हाथी ने कहा-- "खाने के तो दे नहीं सकता। दिखाने के चाहो तो ले लो।"
"हाँ–हाँ, हमें दिखाने के ही चाहिएँ। बड़े सुंदर हैं। हम इनसे खेलेंगे।" --बच्चों ने एक स्वर से कहा।

"लेकिन बड़े तुम्हें खेलने देंगे?" --हाथी ने कहा।

बच्चों ने कहा-- "क्यों नहीं, क्यों नहीं? बड़ों को हमारे खेलने से कोई एतराज नहीं है। वे तो बस इतना चाहते हैं कि हम खतरनाक चीज़ों से न खेलें।"

हाथी ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा-- "ये भी खतरनाक हैं।"

"नहीं, आप झूठ बोलते हैं। खतरनाक नहीं है।" --बच्चों ने उत्तर दिया। हाथी ने कुछ सोचकर कहा-- "अच्छा चलो, ले जाओ मेरे दाँत। बड़े जब मेरे दाँत मांगें तो कहना, हाथी से सावधान, हाथी की पूँछ भले ही छोटी हो, उसके पाँव बहुत भारी होते हैं। वे आदमी को कुचल सकते हैं। फिर भी वे माँगें दाँत तो कहना, सावधान, हाथी को अपने दिखाने के दाँतों से भी उतना ही प्यार होता है, जितना खाने के दाँतों से, और हाथी दूर भी नहीं है। यहीं–कहीं है।"

बच्चे घर आए। हाथी के दाँत लाए। बड़ों ने देखे। बड़े बच्चों के लिए बड़े–बड़े तोहफे, सुंदर–सुंदर खिलौने लाए। उन्हें सैर के लिए ले गए। बच्चे हाथी के दाँतों को भूल गए। बड़े गुपचुप उन्हें ले गए और उन्होंने अपना काम कर लिया।
उधर हाथी बहुत ख़ुश रहा करता कि बच्चे उसके दाँतों से खेल रहे होंगे। और एक दिन, जब वह बच्चों की खुशी का अंदाज़ा लेने आया, तो बच्चे बड़े हो चुके थे।

सचमुच बचपन बचपन ही होता है, बड़े होते ही हम मलिन हो जाते हैं। विष्णु प्रभाकर जी को साधुवाद इस सुन्दर कहानी के लिए!

"लेकिन बड़े तुम्हें खेलने देंगे?" --हाथी ने कहा।
बच्चों ने कहा-- "क्यों नहीं, क्यों नहीं? बड़ों को हमारे खेलने से कोई एतराज नहीं है। वे तो बस इतना चाहते हैं कि हम खतरनाक चीज़ों से न खेलें।"
हाथी ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा-- "ये भी खतरनाक हैं।"
"नहीं, आप झूठ बोलते हैं। खतरनाक नहीं है।" --बच्चों ने उत्तर दिया। हाथी ने कुछ सोचकर कहा-- "अच्छा चलो, ले जाओ मेरे दाँत। बड़े जब मेरे दाँत मांगें तो कहना, हाथी से सावधान, हाथी की पूँछ भले ही छोटी हो, उसके पाँव बहुत भारी होते हैं। वे आदमी को कुचल सकते हैं। फिर भी वे माँगें दाँत तो कहना, सावधान, हाथी को अपने दिखाने के दाँतों से भी उतना ही प्यार होता है, जितना खाने के दाँतों से, और हाथी दूर भी नहीं है। यहीं–कहीं है।"
बच्चे घर आए। हाथी के दाँत लाए। बड़ों ने देखे। बड़े बच्चों के लिए बड़े–बड़े तोहफे, सुंदर–सुंदर खिलौने लाए। उन्हें सैर के लिए ले गए। बच्चे हाथी के दाँतों को भूल गए। बड़े गुपचुप उन्हें ले गए और उन्होंने अपना काम कर लिया।उधर हाथी बहुत ख़ुश रहा करता कि बच्चे उसके दाँतों से खेल रहे होंगे। और एक दिन, जब वह बच्चों की खुशी का अंदाज़ा लेने आया, तो बच्चे बड़े हो चुके थे।
सचमुच बचपन बचपन ही होता है, बड़े होते ही हम मलिन हो जाते हैं। विष्णु प्रभाकर जी को साधुवाद इस सुन्दर कहानी के लिए!"लेकिन बड़े तुम्हें खेलने देंगे?" --हाथी ने कहा।

बच्चों ने कहा-- "क्यों नहीं, क्यों नहीं? बड़ों को हमारे खेलने से कोई एतराज नहीं है। वे तो बस इतना चाहते हैं कि हम खतरनाक चीज़ों से न खेलें।"
हाथी ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा-- "ये भी खतरनाक हैं।"
"नहीं, आप झूठ बोलते हैं। खतरनाक नहीं है।" --बच्चों ने उत्तर दिया। हाथी ने कुछ सोचकर कहा-- "अच्छा चलो, ले जाओ मेरे दाँत। बड़े जब मेरे दाँत मांगें तो कहना, हाथी से सावधान, हाथी की पूँछ भले ही छोटी हो, उसके पाँव बहुत भारी होते हैं। वे आदमी को कुचल सकते हैं। फिर भी वे माँगें दाँत तो कहना, सावधान, हाथी को अपने दिखाने के दाँतों से भी उतना ही प्यार होता है, जितना खाने के दाँतों से, और हाथी दूर भी नहीं है। यहीं–कहीं है।"
बच्चे घर आए। हाथी के दाँत लाए। बड़ों ने देखे। बड़े बच्चों के लिए बड़े–बड़े तोहफे, सुंदर–सुंदर खिलौने लाए। उन्हें सैर के लिए ले गए। बच्चे हाथी के दाँतों को भूल गए। बड़े गुपचुप उन्हें ले गए और उन्होंने अपना काम कर लिया।उधर हाथी बहुत ख़ुश रहा करता कि बच्चे उसके दाँतों से खेल रहे होंगे। और एक दिन, जब वह बच्चों की खुशी का अंदाज़ा लेने आया, तो बच्चे बड़े हो चुके थे।
सचमुच बचपन बचपन ही होता है, बड़े होते ही हम मलिन हो जाते हैं। विष्णु प्रभाकर जी को साधुवाद इस सुन्दर कहानी के लिए!"लेकिन बड़े तुम्हें खेलने देंगे?" --हाथी ने कहा।बच्चों ने कहा-- "क्यों नहीं, क्यों नहीं? बड़ों को हमारे खेलने से कोई एतराज नहीं है। वे तो बस इतना चाहते हैं कि हम खतरनाक चीज़ों से न खेलें।"
हाथी ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा-- "ये भी खतरनाक हैं।"
"नहीं, आप झूठ बोलते हैं। खतरनाक नहीं है।" --बच्चों ने उत्तर दिया। हाथी ने कुछ सोचकर कहा-- "अच्छा चलो, ले जाओ मेरे दाँत। बड़े जब मेरे दाँत मांगें तो कहना, हाथी से सावधान, हाथी की पूँछ भले ही छोटी हो, उसके पाँव बहुत भारी होते हैं। वे आदमी को कुचल सकते हैं। फिर भी वे माँगें दाँत तो कहना, सावधान, हाथी को अपने दिखाने के दाँतों से भी उतना ही प्यार होता है, जितना खाने के दाँतों से, और हाथी दूर भी नहीं है। यहीं–कहीं है।"
बच्चे घर आए। हाथी के दाँत लाए। बड़ों ने देखे। बड़े बच्चों के लिए बड़े–बड़े तोहफे, सुंदर–सुंदर खिलौने लाए। उन्हें सैर के लिए ले गए। बच्चे हाथी के दाँतों को भूल गए। बड़े गुपचुप उन्हें ले गए और उन्होंने अपना काम कर लिया।उधर हाथी बहुत ख़ुश रहा करता कि बच्चे उसके दाँतों से खेल रहे होंगे। और एक दिन, जब वह बच्चों की खुशी का अंदाज़ा लेने आया, तो बच्चे बड़े हो चुके थे।
सचमुच बचपन बचपन ही होता है, बड़े होते ही हम मलिन हो जाते हैं। विष्णु प्रभाकर जी को साधुवाद इस सुन्दर कहानी के लिए!

सोमवार, 20 जनवरी 2014

तुम्हारे साथ रहकर

तुम्हारे साथ रहकर




तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकांत नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकती हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकती हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।