बुधवार, 21 नवंबर 2012

इस बार नहीं( A POEM AGAINST TERRORISM)


इस बार नहीं

इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
उसे फु-फु करके नहीं बहलाऊंगा
पनपने दूंगा उसकी टीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूंगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा
उतरने दूँगा गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं ना मरहम लगाऊंगा
ना ही उठाऊंगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा कि तुम आँखें बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझनें देखूंगा,
छटपटाहट देखूंगा
नहीं दौडूँगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊंगा औज़ार
नहीं करूँगा फिर से एक नई शुरूआत
नहीं बनूँगा एक मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में टेढ़े मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
कि पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौंसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है
इस बार यही तय किया है मैंने......

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

ओ अंतरिक्ष!


ओ अंतरिक्ष!
ओ अंतरिक्ष! तुम क्या हो ?
क्या तुम मायावी जाल हो ?
या अनजान नाव की पाल हो ?
तुम प्रकाश हो, या अंधकार हो ?
तुम शुष्क हो या आर्द्र हो ?
क्या तुम परमाणु हो अणु के ?
लगते तुम कभी चंद्र तनु से
क्या गति की तुम परिभाषा हो ?
या शक्ति की तुम आशा हो ?
ओ अंतरिक्ष! तुम क्या हो ?
क्या तुम आकाश का विस्तार हो ?
क्या प्रकृति का चस्मत्कार हो ?
क्या पदार्थ का कोई प्रहार हो ?
क्या ईश्वर का ही सौंदर्य अपार हो ?
ओ अंतरिक्ष तुम क्या हो ?
कितना कठिन है तुम्हें समझ पाना,
तुमहारे नियन्ता को हमने न जाना
तुम गूढ़ रहस्य लघु ज्ञान बुद्धि मेरी
कैसे जाना लघुतम कणों में तुमने बस जाना ।
ओ मूर्ख मनुष्य! आँखें खोल, कर दृष्टिपात!
मैं ही तुम्हारे रतजगों में प्रकाश बनकर आया!
मैंने ही तुम्हारी धमनियों में उर्जा का रूप पाया!
मैं ही तुम्हारे संकल्पों में दृढ़ता स्वरूप समाया!
मैं तुम्हारे कण-कण में हूँ समाया!
तुममें मैं हूँ,
मुझ में तुम हो,
आँखें बंद कर हाथ बढ़ा कर,
मुझे बुलाओ,
मेरा स्पर्श करो,
मुझसे बातें करो,
मेरा अनुभव करो,
और......और
मेरेस्निग्ध सागर में डूब जाओ......
मेरे स्निग्ध सागर में डूब जाओ!!!!!!!

रविवार, 11 नवंबर 2012

HAPPY DIWALI !!!!!!


बन कर दीप तुम्हें जलना है

थक न जाएं कदम तुम्हारे
राही तुम्हें और चलना है,
घोर निराशा के अंधकार में
बन कर दीप तुम्हें जलना है ॥
                                         कर्म तुम्हारा केवल पूजा
                                         और न साथी कोई न दूजा,
                                         श्रम-ईश्वर के माथे पर ही
                                         बनकर सुमन तुम्हें चढ़ना है ॥
यह दुनिया तो कर्म क्षेत्र है
जिसमें बस आना-जाना है,
मत घबराओ कभी दुखी न हो
बनकर पवन तुम्हें बहना है ॥
घोर निराशा के अंधकार में
बन कर दीप तुम्हें जलना है॥
                                         तुम्हीं राम हो तुम्हीं श्याम हो
                                         तुम जन-जन के प्राण अमर हो,
                                         आगे कदम बढ़ाते जाओ
                                         कभी नहीं पीछे हटना है ॥
                                        
मन वाणी से एक रहो तुम
कभी न खोना अपना संयम,
मातृभूमि के सदा ऋणी हो
इतना ध्यान सदा रखना है ॥
घोर निराशा के अंधकार में
बन कर दीप तुम्हें जलना है॥
                                         बनो त्याग की मूर्ति हमेशा
                                         कुछ तो कर जाओ ऐसा,
                                         जिससे याद तुम्हारी आए
                                         क्योंकि तुम्हें मरकर जीना है ॥
थक न जाएं कदम तुम्हारे
राही तुम्हें और चलना है,
घोर निराशा के अंधकार में
बन कर दीप तुम्हें जलना है ॥