गुरुवार, 15 नवंबर 2012

ओ अंतरिक्ष!


ओ अंतरिक्ष!
ओ अंतरिक्ष! तुम क्या हो ?
क्या तुम मायावी जाल हो ?
या अनजान नाव की पाल हो ?
तुम प्रकाश हो, या अंधकार हो ?
तुम शुष्क हो या आर्द्र हो ?
क्या तुम परमाणु हो अणु के ?
लगते तुम कभी चंद्र तनु से
क्या गति की तुम परिभाषा हो ?
या शक्ति की तुम आशा हो ?
ओ अंतरिक्ष! तुम क्या हो ?
क्या तुम आकाश का विस्तार हो ?
क्या प्रकृति का चस्मत्कार हो ?
क्या पदार्थ का कोई प्रहार हो ?
क्या ईश्वर का ही सौंदर्य अपार हो ?
ओ अंतरिक्ष तुम क्या हो ?
कितना कठिन है तुम्हें समझ पाना,
तुमहारे नियन्ता को हमने न जाना
तुम गूढ़ रहस्य लघु ज्ञान बुद्धि मेरी
कैसे जाना लघुतम कणों में तुमने बस जाना ।
ओ मूर्ख मनुष्य! आँखें खोल, कर दृष्टिपात!
मैं ही तुम्हारे रतजगों में प्रकाश बनकर आया!
मैंने ही तुम्हारी धमनियों में उर्जा का रूप पाया!
मैं ही तुम्हारे संकल्पों में दृढ़ता स्वरूप समाया!
मैं तुम्हारे कण-कण में हूँ समाया!
तुममें मैं हूँ,
मुझ में तुम हो,
आँखें बंद कर हाथ बढ़ा कर,
मुझे बुलाओ,
मेरा स्पर्श करो,
मुझसे बातें करो,
मेरा अनुभव करो,
और......और
मेरेस्निग्ध सागर में डूब जाओ......
मेरे स्निग्ध सागर में डूब जाओ!!!!!!!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें