मंगलवार, 4 मार्च 2014

मैं!!!!!!!!

मैं थी, मैं हूँ,

मैं ही रहूँगी !

मैं ही दुनिया सारी हूँ,

मैं नारी हूँ !!!!!

रविवार, 2 मार्च 2014

तुम्हारे साथ रहकर

तुम्हारे साथ रहकर 

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकती हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकती हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है,मेरी है********

हाथी के दाँत

हाथी के दाँत

हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और, लेकिन बच्चों को उसके खिलौने के दाँत प्रिय थे, क्योंकि वे सुंदर थे। बड़ों को भी वे प्रिय थे, क्योंकि कीमती थे। एक बार बच्चे हाथी के पास गए। उन्होंने कहा-- "हाथी दादा, हाथी दादा, अपने दाँत हमें दे दो।"

हाथी ने कहा-- "खाने के तो दे नहीं सकता। दिखाने के चाहो तो ले लो।"

"हाँ–हाँ, हमें दिखाने के ही चाहिएँ। बड़े सुंदर हैं। हम इनसे खेलेंगे।" --बच्चों ने एक स्वर से कहा।

"लेकिन बड़े तुम्हें खेलने देंगे?" --हाथी ने कहा।

बच्चों ने कहा-- "क्यों नहीं, क्यों नहीं? बड़ों को हमारे खेलने से कोई एतराज नहीं है। वे तो बस इतना चाहते हैं कि हम खतरनाक चीज़ों से न खेलें।"

हाथी ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा-- "ये भी खतरनाक हैं।"

"नहीं, आप झूठ बोलते हैं। खतरनाक नहीं है।" --बच्चों ने उत्तर दिया। हाथी ने कुछ सोचकर कहा-- "अच्छा चलो, ले जाओ मेरे दाँत। बड़े जब मेरे दाँत मांगें तो कहना, हाथी से सावधान, हाथी की पूँछ भले ही छोटी हो, उसके पाँव बहुत भारी होते हैं। वे आदमी को कुचल सकते हैं। फिर भी वे माँगें दाँत तो कहना, सावधान, हाथी को अपने दिखाने के दाँतों से भी उतना ही प्यार होता है, जितना खाने के दाँतों से, और हाथी दूर भी नहीं है। यहीं–कहीं है।"

बच्चे घर आए। हाथी के दाँत लाए। बड़ों ने देखे। बड़े बच्चों के लिए बड़े–बड़े तोहफे, सुंदर–सुंदर खिलौने लाए। उन्हें सैर के लिए ले गए। बच्चे हाथी के दाँतों को भूल गए। बड़े गुपचुप उन्हें ले गए और उन्होंने अपना काम कर लिया।
उधर हाथी बहुत ख़ुश रहा करता कि बच्चे उसके दाँतों से खेल रहे होंगे। और एक दिन, जब वह बच्चों की खुशी का अंदाज़ा लेने आया, तो बच्चे बड़े हो चुके थे।

सचमुच बचपन बचपन ही होता है, बड़े होते ही हम मलिन हो जाते हैं। विष्णु प्रभाकर जी को साधुवाद इस सुन्दर कहानी के लिए!

एक नई दुनिया



एक नई दुनिया 
बसा लेती हूँ अपने भीतर 
मैं, कभी-कभी 

एक गुलाबी सा उजाला 
फैला रहता है उसमें 
सुगन्धित हवाएँ 
वहाँ विचरती रहती हैं 
हरियाली
कहकहे लगाती है
शेर के पंजे में चुभा काँटा
एक नन्हीं चिड़िया निकालती है

इस दुनिया में
बड़ी इज़्जत है
हवाओं की,पानियों की
यहाँ तक कि
हरी दूब की भी

मैं तो बयान भी नहीं कर सकती
लेखनी चलने से इनकार कर देती है

मैं तो बस
गुलाबी उजाले में ही
घूमती-फिरती
अपनी दुनिया पर
इठलाया करती हूँ

दुनिया की सभी बेटियों को समर्पित



तुम गाती हो 

तुम गाती हो
गाती हो जीवन का गीत
और धूप-सी खिल जाती हो

तुम गाती हो
गाती हो सौन्दर्य का गीत
और फूल-सी हिल जाती हो

तुम गाती हो
गाती हो प्रेम का गीत
और रक्त में मिल जाती हो

मैं चाहूँ यह
तुम गाओ हर रोज़ सवेरे
कोई समय हो
हँसी हमेशा रहे तुम्हें घेरे

मैं जो हूँ

मैं जो हूँ 



वस्तुतः
मैं जो हूँ
मुझे वहीं रहना चाहिए
यानी
वन का वृक्ष
खेत की मेड़
नदी की लहर
दूर का गीत
व्यतीत
वर्तमान में
उपस्थित भविष्य में
मैं जो हूँ मुझे वहीं रहना चाहिए

तेज़ गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कड़ाके की सर्दी
खून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी
मैं जो हूँ
मुझे अपना होना
ठीक ठीक सहना चाहिए

तपना चाहिए
अगर लोहा हूँ
हल बनने के लिए

बीज हूँ
तो गड़ना चाहिए
फल बनने के लिए

मैं जो हूँ
मुझे वह बनना चाहिए
धारा हूँ अन्तः सलिला
तो मुझे कुएँ के रूप में
परोपकारी होना चाहिए

अगर मैं आसमान हूँ
तो मुझे सबको
विस्तार देना चाहिए

मगर मैं
कब से ऐसा नहीं
कर रही हूँ
जो हूँ
वही होने से डर रही हूँ **********

मेरा तो रब खो गया

मेरा तो रब खो गया

उस दिन पूरे घर में कोहराम मचा हुआ था। दादी परेशान थी, हैरान थी, रुआंसी हो उठी थी। उनके ठाकुर जी की बंसी खो गयी थी। ठाकुर जी को तो कोई चिंता नहीं थी पर दादी बहुत दुखी थी। बहरहाल थोड़ी देर बाद बंसी मिल ही गयी। दादी इतनी खुश की जैसे ठाकुर जी ने दर्शन दे दिए हों। रोज़मर्रा के काम और जल्दबाजी में अक्सर किसी न किसी का कुछ न कुछ खो ही जाता। माँ, अक्सर अपनी अलमारी की चाबी खो जाने पर परेशान हो जाती। पिताजी के प्राण उनकी कलम में बसते। भाई की जान गाडी़ की चाबी में; तो बहन की साँस मोबाईल में। इन सब चीजों को ये कभी आखों से ओझल नहीं करते, और जो ये इनकी प्रिय वस्तु खो जाये तो... इनकी दुनिया ही बेकार हो जाये। यानी सबने अपने-अपने रब बना लिए है, अपनी सुविधा, जरुरत और ख़ुशी के लिए अपने -अपने खुदा गढ़ लिए हैं। अपने खुदा, जिन्हें पाकर, जिन्हें पास रखकर वो खुश हैं। जैसे किसी व्यापारी को नोटों की हरियाली में ईश्वर दिखता है। किसी सुन्दर महिला को आईना ही खुदा जैसा दिखता है, किसी प्रेमी को अपनी प्रियतमा में। किसी दिन इनकी ये प्रिय चीज़ खो जाए तो उसे ढूढ़ने के लिए पागल हो जाए।

उस दिन किसी मंदिर के बाहर बहुत भीड़ देखी, सभी का कुछ न कुछ खोया था, किसी का धन, किसी का मन, किसी का तन कोई भाग्य खोज रहा था, कोई शांति, कोई ख़ुशी, कोई हंसी, कोई आनन्द, कोई शोहरत, कोई शक्ति, कोई मुक्ति और कोई दीवाना प्रेम खोजता था। सभी अपनी अपनी मन्नत के धागे बांध देने को आतुर थे। मन्दिर की चौखट मुझे देख हंसी; बोली तुम्हारा भी कुछ खोया है क्या?

हाँ, हाँ मेरा तो रब ही खो गया है। तुमने देखा है क्या? चौखट बोली, जाओ भीतर देखो वहीं होगा... मैं बोली भीतर इक छोटे कमरे में इक पत्थर की सुन्दर मूर्ति है जिसे चढ़ावा चढ़ा का लोग खुश कर रहे है। मेरा रब पत्थर का नहीं होगा, न उसे मेरे किसी चढ़ावे की जरुरत होगी। वो यहाँ नहीं हो सकता। वो शायद उस मस्जिद में हो, किसी ने सुझाया... देखो वहाँ... जहाँ ज़ोर ज़ोर से पुकारते है लोग अपने खुदा को... नहीं-नहीं, मेरे रब को जोर से पुकारने की जरुरत नहीं, वो तो मेरी सांसों की आवाज़ को सुन कर ही आ जाता था। जब-जब उसे याद किया, वो भीतर ही महसूस हुआ।

पर वो अभी तो यही था, इक पल में ना जाने कहाँ गया। फिर किसी ने इशारा किया, वो उस तरफ बहुत से लोग कुछ पढ़ते हैं वहां जाओ। वहाँ देखा तो इक मोटे ग्रन्थ को बहुत से लोग पढ़ते दिखाई दिए। उस किताब में वो छिपा है शायद... मुझे उस किताब की भाषा बिल्कुल समझ नहीं आई। आखें बंद करो तो दिखे, खोलो तो गायब... इसीलिए मैं उसकी कोई किताब, कहानी, कविता नहीं पढ़ सकी, वो किसी भी कहानी या गीत में नहीं मिला, उसकी किताब में भी वो कहीं नहीं था। क्या मेरा रब किसी किताब में व्यक्त हो सकता था? क्या वो इतना दयनीय था की उसे सूली पर लटका दिया जाता? अपने सवालों के साथ थक कर ज़रा बैठी ही थी इक फकीर वहां से गुजरे... उन्होनें मुस्कुरा कर पूछा, क्या खोजती हो... बाबा मेरा रब खो गया। कभी देखा था उसे? कभी मिली हो उसे? जो उसे इन बाजारों में खोजने चली आई... क्या करोगी उससे मिलकर?

रब जब खोता है ना, तो सब खो जाता है। फिर सारी दुनिया बेमानी लगती है। वैसे कुछ खास काम नहीं था उससे। बस चंद सवाल ही करने थे, वो जो मिल जाता तो पूछ ही लेती... ना मंदिर में दिखा ना मस्जिद में, रहता कहीं और है, और पता कहीं और का देता है। जो दिखता नहीं, उसे कोई कैसे खोजे? जो दिखाई ना दे, सुनाई ना दे, ऐसे लापता रब को कहाँ-कहाँ खोजूं ? उसकी आंच में जलना, कांच पे चलने जैसा ही कठिन है।

दो आखें उसे क्यों खोजती है? जो कभी मिला ही नहीं। क्यों वो जब चाहे जी भर के हंसा जाता है हमें। और वो चाहे तो ज़ार-ज़ार रुला जाता है। ऐसे भी कोई किसी को सताता है? कभी तो सारी दुनिया कदमों में डाल देता है तो कभी... सब कुछ ले जाता है अपने साथ***

कितना आसान है जीने का हुकुम देना... कितना कठिन है जीने का स्वांग करना। जब उसे लापता होना ही था, गुम होना ही था, तो आया ही क्यों? फिर क्या करेगा वो? उसे पुकारना बंद कर दें और महसूस करना भी। या किसी दिन परेशान होकर हम उसे भूल ही बैठे... फिर किसी दिन घबरा कर वो धरती पर आए। अपने होने के सौ कारण गिनाए। अपनी उपस्थिति का अहसास कराए और कहे, देखो मैं हूँ तुम्हारा खोया रब... और हम कहे... आप कौन?

कागा सब तन खाइयो..

कागा सब तन खाइयो..

“कागा सब तन खाइयो…” बचपन से ये पंक्तियाँ सुनती आई हूँ लेकिन पहले इनके अर्थ समझ नहीं आते थे| कागा यानि ‘कौआ’ से कोई क्यों कहता है कि:

कागा सब तन खाइयो मेरा चुन चुन खाइयो मांस , 

दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस…

लेकिन जैसे-जैसे जिन्दगी बहती गयी और रंग दिखाती गयी इन पंक्तियों के मैंने खुद ही अर्थ खोजे और खुद ही इन्हें समझने की कोशिश की| मुझे लगता है की कागा यानि दुनियाँ के वे तमाम रिश्तें जो स्वार्थ, जरुरत पर टिके हैं जो आपसे हमेशा कुछ ना कुछ लेने की बाट ही जोहते हैं|

कभी वे बहन-भाई , माँ-पिता बन कर तो कभी पति-पत्नी दोस्त या संतान बन कर आपको ठगते हैं, उनके मुखौटों के पीछे एक कागा ही होता है जो अपनी नुकीली चोंच से हमारे वजूद को, हमारे अस्तित्व को व्यक्तित्व को, हमारे स्व को, निज को खाता रहता है|

हम लाख छुड़ाना चाहे खुद को वो हमें नहीं छोड़ता| वो हमारी देह को हमारे तन को खाता रहता है चुन- चुन कर माँस का भक्षण करता रहता है। वो कई बार अलग-अलग नामों से, अलग-अलग रूपों में हमसे जुड़ता है और धीरे-धीरे हमें ख़तम किये जाता है|

ये तो हुआ कागा और हम कौन हैं? सिर्फ देह? सिर्फ भोगने की वस्तु? किसी की जरुरत के लिए हाजिर सामान की डिमांड ड्राफ्ट?

क्या है हम और पिया कौन है?

जिसके मिलने की चाह में हम ज़िंदा हैं? कागा के द्वारा सम्पूर्ण रूप से तन को खा जाने का भी हमें ग़म नहीं और उससे विनती की जा रही है कि “दो नैना मत खाइयों मोहे पिया मिलन की आस” --कौन है ये पिया यक़ीनन वो परमात्मा ही होगा जिसकी तलाश में ये दो नैना टकटकी लगाए हैं की अब बस बहुत हुआ आ जाओ और सांसों के बंधन से देह को मुक्त करो|

ये कागा उस विरहणी का मालिक भी है जिसने उसे बंदनी बना रखा है और जो अपने प्रियतम की आस में आँखों को बचाए रखने की विनती करती है कि जब तक प्रियतम नहीं मिलते उसके प्राण नहीं जाएँगे| कितना दर्द है और गहरे अर्थ भी है इन पंक्तियों में कागा तू जी भर कर इस भौतिक देह को खाले| चुन चुन कर तू इसका भोग कर ले मगर दो नैना छोड़ देना क्योंकि इनको पिया मिलन की आस है और कागा क्या करता है वो अपना काम बखूबी करता है| अपनी जरुरत अपने अवसर और अपने सुख के लिए वो मांस का भक्षण किये जाता है उसे विरहणी की आखों में, या मन में झांकने की फुर्सत नहीं और आखों से उसे क्या सरोकार? वो तो देह का सौदागर है ना और सौदागरों ने हमेशा अपने लाभ देखे हैं| किसी की आँखों में बहते दर्द नहीं देखे ना हीं पराई पीर ही देखी । इसीलिए वो कह उठी होगी कि “कागा सब तन खाइयो...”

भेद ये गहरा, बात ज़रा-सी

भेद ये गहरा, बात ज़रा-सी

सड़क किनारे बने हुए हवेलीनुमा मकानों के सामने की सड़क हमेशा खूब साफ सुथरी होती है । उन घरों के नौकर रोज़ ही घरों से कचरे की बड़ी-बड़ी पन्नियाँ उठा कर पास ही बनी झोपड़ पट्टी के सामने फेंक आते हैं। फिर शुरू होता है उस बस्ती के बच्चों का खेल वे उस कचरे में से अपनी अपनी पसंद के खिलौने खोजते हैं। एकदिन ऐसा ही हुआ। बहुत-से बच्चे उस में से अपने मतलब की चीजे छांट रहे थे। लेकिन एक छोटे बच्चे के हिस्से कुछ भी नहीं आया। वह बड़ी देर तक रोता रहा फिर हार कर उसने उस कचरे से एक टूटी हुई गुड़िया खोज ली। और बहुत ही प्यार से उससे खेलने लगा। उस बच्चे के चेहरे पर मैंने बहुत ही प्यार देखा। उस टूटे खिलौने के प्रति। वह घंटों खुद को भुला कर उस टूटे खिलौने के साथ था। कैसी शांति और कैसा प्रेम था उसके चेहरे पर। उसके गालों पर बहता जल अब इतिहास बन गया था और उसके होठों पर एक पवित्र मुस्कान थी। कैसे उस बच्चे ने उस टूटे हुए खिलौने में खुद को समा कर ख़ुशी खोज ली।

हम समझदार लोग खुश होने के लिए कितने जतन करते है। रात दिन एक करते हैं । इकदूजे को नीचा दिखाते हैं। गिराते हैं। झूठ बोलते हैं । छलते हैं। भेष बदलते हैं ।मुखौटे लगाते हैं। कवच पहनते हैं। छवि गढ़ते हैं ख़ुशी छीनते हैं और जब इन सबसे भी बात नहीं बनती तो वस्तुओं में ख़ुशी तलाशते हैं।

कोई अपने हवेलीनुमा मकान को देख खुश होता है। कोई अपनी लम्बी कार देख कर। कोई बैंक बेलेंस देख तो कोई फेसबुक पर अपने पांच हजार दोस्त देख कर। लेकिन ये ख़ुशी फिर भी टिकती नहीं। फूलों से खुशबू की तरह उड़ क्यों जाती है? इतना सब पा लेने के बाद भी वह संतुष्टि नहीं दिखती वह मुस्कराहट भी नहीं खिलती, जो उस गरीब बच्चे के चेहरे पर टूटे, बेकार से खिलौने ने खिला दी थी। क्या भेद है ये?

दरअसल बच्चे ने उस खिलौने में खुद को डूबा दिया। समा दिया। खुद को भुला दिया। जब-जब भी हम खुद को भुला कर खुश होते है। वह ख़ुशी स्थायी होती है। उस ख़ुशी का अहसास जीवन भर आपके साथ चलता है। जैसे किसी बहुत सुन्दर दृश्य को देख आप खुद को भूल जाते है। या कोई लम्हा जब आपको आपसे जुदा कर जाता है। वह याद वह पल आप कभी नहीं भूलते। जिस पल आप गुम हुए थे। वह पल हमेशा आपके साथ चलता है।

अक्सर हम कहते सुनते हैं कि सुन्दरता देखने वालो की आँख में होती है। लेकिन कैसे? इक़ दिन किसी नदी किनारे जाना हुआ। वहाँ कुछ लोग अपनी मन्नतों के दीपक सिला रहे थे तो कुछ अपने पाप धो-धो कर नदी को मैला कर रह रहे थे। कई सारे उस पानी का इस्तेमाल अपनी ज़रूरतों के लिए कर रहे थे। बड़ा शोर मचा हुआ था चारों और लेकिन लेकिन लेकिन********** मैंने चुपके से सुना कि लहरें, किनारों से बतिया रही हैं, ज़रा ध्यान दिया तो उनकी आवाज़ भी सुनाई देने लगी। कितनी सुन्दर। कितनी आज़ाद थी लहरें। अपनी मर्ज़ी से आती और जाती थी। अहंकार से अकड़े किनारे भीग भीग जाते थे लेकिन अपनी जगह से हिलते नहीं थे। वे वापस चली जाती। उस दिन मैंने ये जाना कि नदी का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते-करते हम कितने स्वार्थी हो गए कि कभी भी दो घड़ी बैठ कर उसकी सुन्दरता को नहीं निहार सके। उसकी बात नहीं सुन सके। कितनी नदियों ने कहा होगा मैं नदिया फिर मैं भी प्यासी।

ख़ुशी और प्रेम पाने का भेद गहरा है, लेकिन बात ज़रा-सी ही है !

रंगरेजा, ये ले रंगाई, चाहे तन, चाहे मन

रंगरेजा, ये ले रंगाई, चाहे तन, चाहे मन 

कल,बाज़ार से गुज़रते समय इक़ रंगरेज की दुकान पे नज़र पड़ी। वो बड़े जतन से, हर कपड़े को रंग रहा था। बड़ी ही तन्मयता के साथ। हर कपड़े को उठा -उठा कर रंग में भिगो देना। फिर उसे सुखाने के लिए इक़ रस्सी पर लटका देना। लाल, नीले, हरे पीले, गुलाबी और जामुनी भी तो। सभी रंग कितने अच्छे और कितने कच्चे... ज़रा लापरवाही हुई नहीं की इक़ का रंग दूजे पर चढ़ जाए। वो रंगरेज, अपने काम से थक के ज़रा आराम करने की नियत से लेट गया। और मैं चल दी। लेकिन तभी मैंने उस दुकान में कुछ आवाज़े सुनी। सभी, साड़ियाँ, दुपट्टे, और बहुत से कपड़े इक़ जगह आकर इकट्ठे होकर बतिया रहे थे। मैं ठहर गयी तो सुना ---इक़ गुलाबी दुपट्टे ने बात शुरू की। इस रंगरेज से मैं बहुत परेशान हूँ। ये अपनी मर्जी से हमें क्यों रंग देता है? मुझे गुलाबी, नहीं लाल रंग पसंद है। फिर इसने मुझे ये फीका गुलाबी रंग क्यों दिया? जबकी मैं चटक लाल हो जाना चाहता हूँ। और वो देखो, देखो काली साड़ी कितनी उदास है उसे हरा पसंद था। मेरा बस चले तो इक़ दिन इस रंगरेज की दुकान ही बंद करवा दूँ।

अब तुम चुप हो जाओ। इक़ सफ़ेद कपड़ों की गठरी बोली। ये रंगरेज, इतना बुरा भी नहीं। अब मुझे देखो मैं कितनी बुरी लगती हूँ। रंगहीन। कल ये मुझे इक़ नए रंग में रंग देगा। फिर मैं बाज़ार में चली जाउगी। वहां मुझे खरीद के लोग अपनी मनपसंद ड्रेस बनवायेगे। मेरा उपयोग होगा। दुनिया देखुगी मैं। यहाँ घुट के मरने से बेहतर है दुकान से बाहर चले जाना। ये रंगरेज ना हो तो क्या मोल है हमारा? बोलो?

तभी, खूंटी पर सुखाने के लिए लटकाई गयी इक़ साड़ी बोली। इस रंगरेज को इतनी भी खबर नहीं कि मैं कबसे इस खूंटी पर टंगी हुई हूँ। मेरी बारी कब आएगी की मैं हवा में खुल के बिखर जाऊं? उड़ जाऊं। तभी इक़ दर्द भरी आह निकली --और मुझे देखो मैं कबसे इस रंग के बर्तन में भीग रहा हूँ। मुझे बाहर नहीं निकालता वो रंगरेज। मैं दर्द से मर गया हूँ। ये कितना निष्ठुर रंगरेज है और हमारी बात, जो हम कह नहीं सकते इससे। क्या, ये कभी समझ पायेगा?

अब, मैं सोचने लगी। हम सब भी तो मात्र इक़ कोरे कपड़े ही है। ऊपर बैठा वो रंगरेज हमें जैसे चाहे रंग दे। उसके रंग कितने अच्छे कितने सच्चे। वो हम सभी को अलग -अलग रंगों में रंगता है। हम सभी, इक़ दूजे से कितने अलग। कोई किसी से मेल नहीं खाता। चेहरे अलग। फ़ितरत अलग। आवाज़ अलग। अंदाज़ अलग। किसी का रंग किसी से नहीं मिलता। किसी का ढंग किसी से नहीं मिलता। सभी विशेष। सभी अनोखे। क्या खूब बनाया ।

कितने, रंग उसके पास। कितने ढंग उसके पास। कैसा संग उसका? कैसा चलन उसका? कौन जाने? कितना जाने? हाँ सभी कोरे कपड़े की गठरियाँ है। कब किसकी बारी आये वही जाने। हम जिस रंग के है उस रंग का कोई दूजा क्यों नहीं मिलता? हम जिस ढंग के हैं वैसा कोई और क्यों नहीं दिखता? इस ऊपर बैठे रंगरेज़ से हम सभी इतने नाराज़ क्यों? फिर भी उससे मिलने की आस क्यों? वो दिखता नहीं फिर भी आसपास क्यों?

ओ, रंगरेज़****सुनो ना... तुम खूब हो। तुम्हारे रंग भी बड़े खूब हैं। लेकिन ये बताओ क्या कभी कोई रंग तुम पर भी किसी का कोई रंग चढ़ा है? तुम कभी किसी के रंग में रंगे हो? क्या कभी तुम्हारे भीतर किसी का कोई रंग बहता है? चलो मत बताओ ये तो बताओ की हम तुम्हे तुम्हारे इस मेहनताने की क्या कीमत दे? क्या रंगाई है तुम्हारी?

जो, हम पर अपना रंग चढ़ा दे। जो हमें इक़ नए रूप में बदल दे। उस रंगरेज को कोई क्या दे भला? देह हो या मन। दोनों तुम्हारी रचना। इनमे से तुम जो चाहे वो ले सकते हो। या तो मन? या देह? या दोनों? ये फैसला रंगरेज़ खुद करे। इक़ गीत की पंक्तियाँ हैं। रंगरेज़ा, रंग मेरा मन, मेरा तन। ये ले रंगाई चाहे मन? चाहे तन?

सदा कामना मेरी

सदा कामना मेरी 

सदा कामना मेरी-

कुछ अच्छा करने की

सबका दुख हरने की ।

हर फूल खिलाने की

हर शूल हटाने की ।

सदा कामना मेरी -

हरियाली ले आऊँ

खुशहाली दे पाऊँ ।

नेह नीर बरसाऊँ

धरती को सरसाऊँ ।

सदा कामना मेरी-

मैं सबकी पीर हरूँ

आँधी में धीर धरूँ ।

पापों से सदा डरूँ

जीवन में नया करूँ ।

सदा कामना मेरी-

नन्हीं पौध लगाऊँ

सींच-सींच हरसाऊँ ।

अनजाने आँगन को

उपवन–सा महकाऊँ ।

सदा कामना मेरी-

हर मुखड़ा दमक उठे

आँखें सब चमक उठें ।

अधर सभी मुस्काए

मीठे गीत सुनाएँ ।

तेरा ज़िक्र है या इत्र है

तेरा ज़िक्र है या इत्र है 

तेरा ज़िक्र है, या इत्र है? जब-जब होता है, महकाता है, बहकाता है, चहकाता है। हम जब भी किसी से बात करते हैं, हमारी बातों में अक्सर उन्हीं लोगों का ज़िक्र ज़्यादा होता है जिन्हें हम अपने सबसे करीब महसूस करते हैं; भले ही वे हमारे पास ना हो; भले ही वे हमारे साथ हो ना हो; लेकिन वे हमारी बातों में हमेशा मौजूद होते हैं। उनका जिक्र होना, मानों इत्र की शीशी खुल गयी हो और खुशबू चारों ओर बिखर गई... क्या है ये खुशबू? ज़िक्र के साथ इत्र का क्या सम्बन्ध है? इस खुशबू का क्या मनोविज्ञान है? क्या सिद्धांत हैं? क्यों आती है? कहाँ से आती है? कहाँ चली जाती है? कब तक रुकेगी? कोई समय सीमा भी तो नहीं। इसका कोई सरहद, कोई पैमाना नहीं। कोई आशियाना नहीं। दिखती नहीं पर छूती है। उठती है तो आग लगा देती है। बहती है तो समन्दर कर देती है। बड़ी भोली, बड़ी मासूम, बड़ी मीठी-सी... कहीं पढ़ा था मैंने " दुनिया की सबसे खूबसूरत शै वही है जो दिखाई ना दे। सिर्फ़ महसूस की जाए।“ यकीनन, वो ईश्वर ओर प्रेम होंगे। लेकिन मैंने खुशबू को भी ईश्वर और प्रेम जैसा पवित्र और खूबसूरत मान लिया है।

ये तीनों अलग-अलग हैं भी नहीं। एक ही हैं। नाम अलग-अलग दिए है हमने। ईश्वर, इश्क और मुश्क... ईश्वर को सोचो तो खुशबू आती है। खुशबू में डूब जाओ, तो ईश्वर दिखता है; और इश्क में डूबो तो ईश्वर दिखते है और इबादत की खुशबू उठने लगती है। है ना कमाल की बात जो खुद दिखाई ना दे पर होने का अहसास करा दे!

बहरहाल, हम बात कर रहे थे कि किसी का जिक्र हो और इत्र फैल जाए। किसी की बातों में खुशबू होती है। किसी के शब्द खुशबू बिखेरते है। किसी अजनबी से मुलाकात हमें खुशबू से क्यों भर देती है? हम जिन्दगी भर खुद को सराबोर पाते है उस खुशबू से। क्यों भरी दुनिया में कोई विशेष खुशबू आपको बांधने लगती है। और आप खिंचे चले जाते हैं उसकी तरफ़...

इन खुशबुओं के अपने रहस्य है। किसी दीवाने शायर ने कह दिया कि तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे? तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ, आग बहते पानी में लगा आया हूँ। बहते पानी में आग कैसे लगा दी खुशबू ने? है ना, हैरानी की बात? इतनी हल्की, मासूम, अनदेखी, अनछुई सी शै कैसे गंगा में आग लगा सकती है?

जैसे कृष्ण की बंसी ने कभी किसी को नहीं पुकारा। ना कभी किसी का भूले से नाम लेकर बुलाया। उस छलिये ने कभी आवाज़ भी तो नहीं दी। लेकिन... बंसी के हर सुर से प्रेम की खुशबू उठती थी, इक़ पुकार, इक़ बुलावा! और सच्ची पुकार आपको खींच कर ले जाती है उस ठिकाने पर। लेकिन क्या कोई ठिकाना है इसका? कौन जाने किस ग्रह से आती है और कहाँ चली जाती है? कौन कहता है कि खुशबू फूलों में बसती है। मैंने तो देखा है कि ये पत्थरों में भी हंसती है, रेगिस्तानों में चमकती है, समन्दरों में तैरती है, चन्द्रमा में छिपती है... हाँ... ये फूलों से झांकती है, रूह को सताती है, नींदों को उड़ाती है, आँखों से छलकती है, होठों पर कांपती है, भीड़ में तन्हा किए जाती है, रात के स्याह सन्नाटों में आपको आवाज़ देती है, बैचेन करती है। सो जांएगे तो सपनों में आकर हँसेगी, जाग जांएगे तो रुलाएगी। अपने भीतर झांकेगे तो हँसने की आवाज़ आएगी । आप लाख चुप रहे पर ये तो सारे राज़ खोलेगी। सदियों से ना जाने कितने खुशबुओं के ज्ञानी अपनी खुशबू की तलाश में भटक रहे हैं, तरस रहे है।
याद रहे चन्दन के पेड़ आग में जलाने के लिए नहीं होते। वे तो अनमोल खुशबू हैं , उसे संजोना होता है मन की गहराइयों में। सच्चे रिश्तों की खुशबू कभी नहीं जाती। वो आपका पीछा नहीं छोड़ती। पत्ती-पत्ती झड़ जाती है लेकिन खुशबू चुप नहीं होती। बशर्ते आप उसे सुन सके। महसूस कर सके। जब-जब ज़िक्र होगा उस खास का, आप एक खुशबू अपने आस-पास महसूस करेंगे और कह उठेंगे --तेरा ज़िक्र है, या इत्र है? मैं जब-जब करता हूँ, महकता हूँ, चहकता हूँ, बहकता हूँ, भटकता हूँ...