रविवार, 2 मार्च 2014

तेरा ज़िक्र है या इत्र है

तेरा ज़िक्र है या इत्र है 

तेरा ज़िक्र है, या इत्र है? जब-जब होता है, महकाता है, बहकाता है, चहकाता है। हम जब भी किसी से बात करते हैं, हमारी बातों में अक्सर उन्हीं लोगों का ज़िक्र ज़्यादा होता है जिन्हें हम अपने सबसे करीब महसूस करते हैं; भले ही वे हमारे पास ना हो; भले ही वे हमारे साथ हो ना हो; लेकिन वे हमारी बातों में हमेशा मौजूद होते हैं। उनका जिक्र होना, मानों इत्र की शीशी खुल गयी हो और खुशबू चारों ओर बिखर गई... क्या है ये खुशबू? ज़िक्र के साथ इत्र का क्या सम्बन्ध है? इस खुशबू का क्या मनोविज्ञान है? क्या सिद्धांत हैं? क्यों आती है? कहाँ से आती है? कहाँ चली जाती है? कब तक रुकेगी? कोई समय सीमा भी तो नहीं। इसका कोई सरहद, कोई पैमाना नहीं। कोई आशियाना नहीं। दिखती नहीं पर छूती है। उठती है तो आग लगा देती है। बहती है तो समन्दर कर देती है। बड़ी भोली, बड़ी मासूम, बड़ी मीठी-सी... कहीं पढ़ा था मैंने " दुनिया की सबसे खूबसूरत शै वही है जो दिखाई ना दे। सिर्फ़ महसूस की जाए।“ यकीनन, वो ईश्वर ओर प्रेम होंगे। लेकिन मैंने खुशबू को भी ईश्वर और प्रेम जैसा पवित्र और खूबसूरत मान लिया है।

ये तीनों अलग-अलग हैं भी नहीं। एक ही हैं। नाम अलग-अलग दिए है हमने। ईश्वर, इश्क और मुश्क... ईश्वर को सोचो तो खुशबू आती है। खुशबू में डूब जाओ, तो ईश्वर दिखता है; और इश्क में डूबो तो ईश्वर दिखते है और इबादत की खुशबू उठने लगती है। है ना कमाल की बात जो खुद दिखाई ना दे पर होने का अहसास करा दे!

बहरहाल, हम बात कर रहे थे कि किसी का जिक्र हो और इत्र फैल जाए। किसी की बातों में खुशबू होती है। किसी के शब्द खुशबू बिखेरते है। किसी अजनबी से मुलाकात हमें खुशबू से क्यों भर देती है? हम जिन्दगी भर खुद को सराबोर पाते है उस खुशबू से। क्यों भरी दुनिया में कोई विशेष खुशबू आपको बांधने लगती है। और आप खिंचे चले जाते हैं उसकी तरफ़...

इन खुशबुओं के अपने रहस्य है। किसी दीवाने शायर ने कह दिया कि तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे? तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ, आग बहते पानी में लगा आया हूँ। बहते पानी में आग कैसे लगा दी खुशबू ने? है ना, हैरानी की बात? इतनी हल्की, मासूम, अनदेखी, अनछुई सी शै कैसे गंगा में आग लगा सकती है?

जैसे कृष्ण की बंसी ने कभी किसी को नहीं पुकारा। ना कभी किसी का भूले से नाम लेकर बुलाया। उस छलिये ने कभी आवाज़ भी तो नहीं दी। लेकिन... बंसी के हर सुर से प्रेम की खुशबू उठती थी, इक़ पुकार, इक़ बुलावा! और सच्ची पुकार आपको खींच कर ले जाती है उस ठिकाने पर। लेकिन क्या कोई ठिकाना है इसका? कौन जाने किस ग्रह से आती है और कहाँ चली जाती है? कौन कहता है कि खुशबू फूलों में बसती है। मैंने तो देखा है कि ये पत्थरों में भी हंसती है, रेगिस्तानों में चमकती है, समन्दरों में तैरती है, चन्द्रमा में छिपती है... हाँ... ये फूलों से झांकती है, रूह को सताती है, नींदों को उड़ाती है, आँखों से छलकती है, होठों पर कांपती है, भीड़ में तन्हा किए जाती है, रात के स्याह सन्नाटों में आपको आवाज़ देती है, बैचेन करती है। सो जांएगे तो सपनों में आकर हँसेगी, जाग जांएगे तो रुलाएगी। अपने भीतर झांकेगे तो हँसने की आवाज़ आएगी । आप लाख चुप रहे पर ये तो सारे राज़ खोलेगी। सदियों से ना जाने कितने खुशबुओं के ज्ञानी अपनी खुशबू की तलाश में भटक रहे हैं, तरस रहे है।
याद रहे चन्दन के पेड़ आग में जलाने के लिए नहीं होते। वे तो अनमोल खुशबू हैं , उसे संजोना होता है मन की गहराइयों में। सच्चे रिश्तों की खुशबू कभी नहीं जाती। वो आपका पीछा नहीं छोड़ती। पत्ती-पत्ती झड़ जाती है लेकिन खुशबू चुप नहीं होती। बशर्ते आप उसे सुन सके। महसूस कर सके। जब-जब ज़िक्र होगा उस खास का, आप एक खुशबू अपने आस-पास महसूस करेंगे और कह उठेंगे --तेरा ज़िक्र है, या इत्र है? मैं जब-जब करता हूँ, महकता हूँ, चहकता हूँ, बहकता हूँ, भटकता हूँ...

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