रविवार, 2 मार्च 2014

मेरा तो रब खो गया

मेरा तो रब खो गया

उस दिन पूरे घर में कोहराम मचा हुआ था। दादी परेशान थी, हैरान थी, रुआंसी हो उठी थी। उनके ठाकुर जी की बंसी खो गयी थी। ठाकुर जी को तो कोई चिंता नहीं थी पर दादी बहुत दुखी थी। बहरहाल थोड़ी देर बाद बंसी मिल ही गयी। दादी इतनी खुश की जैसे ठाकुर जी ने दर्शन दे दिए हों। रोज़मर्रा के काम और जल्दबाजी में अक्सर किसी न किसी का कुछ न कुछ खो ही जाता। माँ, अक्सर अपनी अलमारी की चाबी खो जाने पर परेशान हो जाती। पिताजी के प्राण उनकी कलम में बसते। भाई की जान गाडी़ की चाबी में; तो बहन की साँस मोबाईल में। इन सब चीजों को ये कभी आखों से ओझल नहीं करते, और जो ये इनकी प्रिय वस्तु खो जाये तो... इनकी दुनिया ही बेकार हो जाये। यानी सबने अपने-अपने रब बना लिए है, अपनी सुविधा, जरुरत और ख़ुशी के लिए अपने -अपने खुदा गढ़ लिए हैं। अपने खुदा, जिन्हें पाकर, जिन्हें पास रखकर वो खुश हैं। जैसे किसी व्यापारी को नोटों की हरियाली में ईश्वर दिखता है। किसी सुन्दर महिला को आईना ही खुदा जैसा दिखता है, किसी प्रेमी को अपनी प्रियतमा में। किसी दिन इनकी ये प्रिय चीज़ खो जाए तो उसे ढूढ़ने के लिए पागल हो जाए।

उस दिन किसी मंदिर के बाहर बहुत भीड़ देखी, सभी का कुछ न कुछ खोया था, किसी का धन, किसी का मन, किसी का तन कोई भाग्य खोज रहा था, कोई शांति, कोई ख़ुशी, कोई हंसी, कोई आनन्द, कोई शोहरत, कोई शक्ति, कोई मुक्ति और कोई दीवाना प्रेम खोजता था। सभी अपनी अपनी मन्नत के धागे बांध देने को आतुर थे। मन्दिर की चौखट मुझे देख हंसी; बोली तुम्हारा भी कुछ खोया है क्या?

हाँ, हाँ मेरा तो रब ही खो गया है। तुमने देखा है क्या? चौखट बोली, जाओ भीतर देखो वहीं होगा... मैं बोली भीतर इक छोटे कमरे में इक पत्थर की सुन्दर मूर्ति है जिसे चढ़ावा चढ़ा का लोग खुश कर रहे है। मेरा रब पत्थर का नहीं होगा, न उसे मेरे किसी चढ़ावे की जरुरत होगी। वो यहाँ नहीं हो सकता। वो शायद उस मस्जिद में हो, किसी ने सुझाया... देखो वहाँ... जहाँ ज़ोर ज़ोर से पुकारते है लोग अपने खुदा को... नहीं-नहीं, मेरे रब को जोर से पुकारने की जरुरत नहीं, वो तो मेरी सांसों की आवाज़ को सुन कर ही आ जाता था। जब-जब उसे याद किया, वो भीतर ही महसूस हुआ।

पर वो अभी तो यही था, इक पल में ना जाने कहाँ गया। फिर किसी ने इशारा किया, वो उस तरफ बहुत से लोग कुछ पढ़ते हैं वहां जाओ। वहाँ देखा तो इक मोटे ग्रन्थ को बहुत से लोग पढ़ते दिखाई दिए। उस किताब में वो छिपा है शायद... मुझे उस किताब की भाषा बिल्कुल समझ नहीं आई। आखें बंद करो तो दिखे, खोलो तो गायब... इसीलिए मैं उसकी कोई किताब, कहानी, कविता नहीं पढ़ सकी, वो किसी भी कहानी या गीत में नहीं मिला, उसकी किताब में भी वो कहीं नहीं था। क्या मेरा रब किसी किताब में व्यक्त हो सकता था? क्या वो इतना दयनीय था की उसे सूली पर लटका दिया जाता? अपने सवालों के साथ थक कर ज़रा बैठी ही थी इक फकीर वहां से गुजरे... उन्होनें मुस्कुरा कर पूछा, क्या खोजती हो... बाबा मेरा रब खो गया। कभी देखा था उसे? कभी मिली हो उसे? जो उसे इन बाजारों में खोजने चली आई... क्या करोगी उससे मिलकर?

रब जब खोता है ना, तो सब खो जाता है। फिर सारी दुनिया बेमानी लगती है। वैसे कुछ खास काम नहीं था उससे। बस चंद सवाल ही करने थे, वो जो मिल जाता तो पूछ ही लेती... ना मंदिर में दिखा ना मस्जिद में, रहता कहीं और है, और पता कहीं और का देता है। जो दिखता नहीं, उसे कोई कैसे खोजे? जो दिखाई ना दे, सुनाई ना दे, ऐसे लापता रब को कहाँ-कहाँ खोजूं ? उसकी आंच में जलना, कांच पे चलने जैसा ही कठिन है।

दो आखें उसे क्यों खोजती है? जो कभी मिला ही नहीं। क्यों वो जब चाहे जी भर के हंसा जाता है हमें। और वो चाहे तो ज़ार-ज़ार रुला जाता है। ऐसे भी कोई किसी को सताता है? कभी तो सारी दुनिया कदमों में डाल देता है तो कभी... सब कुछ ले जाता है अपने साथ***

कितना आसान है जीने का हुकुम देना... कितना कठिन है जीने का स्वांग करना। जब उसे लापता होना ही था, गुम होना ही था, तो आया ही क्यों? फिर क्या करेगा वो? उसे पुकारना बंद कर दें और महसूस करना भी। या किसी दिन परेशान होकर हम उसे भूल ही बैठे... फिर किसी दिन घबरा कर वो धरती पर आए। अपने होने के सौ कारण गिनाए। अपनी उपस्थिति का अहसास कराए और कहे, देखो मैं हूँ तुम्हारा खोया रब... और हम कहे... आप कौन?

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