रविवार, 2 मार्च 2014

एक नई दुनिया



एक नई दुनिया 
बसा लेती हूँ अपने भीतर 
मैं, कभी-कभी 

एक गुलाबी सा उजाला 
फैला रहता है उसमें 
सुगन्धित हवाएँ 
वहाँ विचरती रहती हैं 
हरियाली
कहकहे लगाती है
शेर के पंजे में चुभा काँटा
एक नन्हीं चिड़िया निकालती है

इस दुनिया में
बड़ी इज़्जत है
हवाओं की,पानियों की
यहाँ तक कि
हरी दूब की भी

मैं तो बयान भी नहीं कर सकती
लेखनी चलने से इनकार कर देती है

मैं तो बस
गुलाबी उजाले में ही
घूमती-फिरती
अपनी दुनिया पर
इठलाया करती हूँ

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