रविवार, 2 मार्च 2014

भेद ये गहरा, बात ज़रा-सी

भेद ये गहरा, बात ज़रा-सी

सड़क किनारे बने हुए हवेलीनुमा मकानों के सामने की सड़क हमेशा खूब साफ सुथरी होती है । उन घरों के नौकर रोज़ ही घरों से कचरे की बड़ी-बड़ी पन्नियाँ उठा कर पास ही बनी झोपड़ पट्टी के सामने फेंक आते हैं। फिर शुरू होता है उस बस्ती के बच्चों का खेल वे उस कचरे में से अपनी अपनी पसंद के खिलौने खोजते हैं। एकदिन ऐसा ही हुआ। बहुत-से बच्चे उस में से अपने मतलब की चीजे छांट रहे थे। लेकिन एक छोटे बच्चे के हिस्से कुछ भी नहीं आया। वह बड़ी देर तक रोता रहा फिर हार कर उसने उस कचरे से एक टूटी हुई गुड़िया खोज ली। और बहुत ही प्यार से उससे खेलने लगा। उस बच्चे के चेहरे पर मैंने बहुत ही प्यार देखा। उस टूटे खिलौने के प्रति। वह घंटों खुद को भुला कर उस टूटे खिलौने के साथ था। कैसी शांति और कैसा प्रेम था उसके चेहरे पर। उसके गालों पर बहता जल अब इतिहास बन गया था और उसके होठों पर एक पवित्र मुस्कान थी। कैसे उस बच्चे ने उस टूटे हुए खिलौने में खुद को समा कर ख़ुशी खोज ली।

हम समझदार लोग खुश होने के लिए कितने जतन करते है। रात दिन एक करते हैं । इकदूजे को नीचा दिखाते हैं। गिराते हैं। झूठ बोलते हैं । छलते हैं। भेष बदलते हैं ।मुखौटे लगाते हैं। कवच पहनते हैं। छवि गढ़ते हैं ख़ुशी छीनते हैं और जब इन सबसे भी बात नहीं बनती तो वस्तुओं में ख़ुशी तलाशते हैं।

कोई अपने हवेलीनुमा मकान को देख खुश होता है। कोई अपनी लम्बी कार देख कर। कोई बैंक बेलेंस देख तो कोई फेसबुक पर अपने पांच हजार दोस्त देख कर। लेकिन ये ख़ुशी फिर भी टिकती नहीं। फूलों से खुशबू की तरह उड़ क्यों जाती है? इतना सब पा लेने के बाद भी वह संतुष्टि नहीं दिखती वह मुस्कराहट भी नहीं खिलती, जो उस गरीब बच्चे के चेहरे पर टूटे, बेकार से खिलौने ने खिला दी थी। क्या भेद है ये?

दरअसल बच्चे ने उस खिलौने में खुद को डूबा दिया। समा दिया। खुद को भुला दिया। जब-जब भी हम खुद को भुला कर खुश होते है। वह ख़ुशी स्थायी होती है। उस ख़ुशी का अहसास जीवन भर आपके साथ चलता है। जैसे किसी बहुत सुन्दर दृश्य को देख आप खुद को भूल जाते है। या कोई लम्हा जब आपको आपसे जुदा कर जाता है। वह याद वह पल आप कभी नहीं भूलते। जिस पल आप गुम हुए थे। वह पल हमेशा आपके साथ चलता है।

अक्सर हम कहते सुनते हैं कि सुन्दरता देखने वालो की आँख में होती है। लेकिन कैसे? इक़ दिन किसी नदी किनारे जाना हुआ। वहाँ कुछ लोग अपनी मन्नतों के दीपक सिला रहे थे तो कुछ अपने पाप धो-धो कर नदी को मैला कर रह रहे थे। कई सारे उस पानी का इस्तेमाल अपनी ज़रूरतों के लिए कर रहे थे। बड़ा शोर मचा हुआ था चारों और लेकिन लेकिन लेकिन********** मैंने चुपके से सुना कि लहरें, किनारों से बतिया रही हैं, ज़रा ध्यान दिया तो उनकी आवाज़ भी सुनाई देने लगी। कितनी सुन्दर। कितनी आज़ाद थी लहरें। अपनी मर्ज़ी से आती और जाती थी। अहंकार से अकड़े किनारे भीग भीग जाते थे लेकिन अपनी जगह से हिलते नहीं थे। वे वापस चली जाती। उस दिन मैंने ये जाना कि नदी का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते-करते हम कितने स्वार्थी हो गए कि कभी भी दो घड़ी बैठ कर उसकी सुन्दरता को नहीं निहार सके। उसकी बात नहीं सुन सके। कितनी नदियों ने कहा होगा मैं नदिया फिर मैं भी प्यासी।

ख़ुशी और प्रेम पाने का भेद गहरा है, लेकिन बात ज़रा-सी ही है !

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