रविवार, 2 मार्च 2014

रंगरेजा, ये ले रंगाई, चाहे तन, चाहे मन

रंगरेजा, ये ले रंगाई, चाहे तन, चाहे मन 

कल,बाज़ार से गुज़रते समय इक़ रंगरेज की दुकान पे नज़र पड़ी। वो बड़े जतन से, हर कपड़े को रंग रहा था। बड़ी ही तन्मयता के साथ। हर कपड़े को उठा -उठा कर रंग में भिगो देना। फिर उसे सुखाने के लिए इक़ रस्सी पर लटका देना। लाल, नीले, हरे पीले, गुलाबी और जामुनी भी तो। सभी रंग कितने अच्छे और कितने कच्चे... ज़रा लापरवाही हुई नहीं की इक़ का रंग दूजे पर चढ़ जाए। वो रंगरेज, अपने काम से थक के ज़रा आराम करने की नियत से लेट गया। और मैं चल दी। लेकिन तभी मैंने उस दुकान में कुछ आवाज़े सुनी। सभी, साड़ियाँ, दुपट्टे, और बहुत से कपड़े इक़ जगह आकर इकट्ठे होकर बतिया रहे थे। मैं ठहर गयी तो सुना ---इक़ गुलाबी दुपट्टे ने बात शुरू की। इस रंगरेज से मैं बहुत परेशान हूँ। ये अपनी मर्जी से हमें क्यों रंग देता है? मुझे गुलाबी, नहीं लाल रंग पसंद है। फिर इसने मुझे ये फीका गुलाबी रंग क्यों दिया? जबकी मैं चटक लाल हो जाना चाहता हूँ। और वो देखो, देखो काली साड़ी कितनी उदास है उसे हरा पसंद था। मेरा बस चले तो इक़ दिन इस रंगरेज की दुकान ही बंद करवा दूँ।

अब तुम चुप हो जाओ। इक़ सफ़ेद कपड़ों की गठरी बोली। ये रंगरेज, इतना बुरा भी नहीं। अब मुझे देखो मैं कितनी बुरी लगती हूँ। रंगहीन। कल ये मुझे इक़ नए रंग में रंग देगा। फिर मैं बाज़ार में चली जाउगी। वहां मुझे खरीद के लोग अपनी मनपसंद ड्रेस बनवायेगे। मेरा उपयोग होगा। दुनिया देखुगी मैं। यहाँ घुट के मरने से बेहतर है दुकान से बाहर चले जाना। ये रंगरेज ना हो तो क्या मोल है हमारा? बोलो?

तभी, खूंटी पर सुखाने के लिए लटकाई गयी इक़ साड़ी बोली। इस रंगरेज को इतनी भी खबर नहीं कि मैं कबसे इस खूंटी पर टंगी हुई हूँ। मेरी बारी कब आएगी की मैं हवा में खुल के बिखर जाऊं? उड़ जाऊं। तभी इक़ दर्द भरी आह निकली --और मुझे देखो मैं कबसे इस रंग के बर्तन में भीग रहा हूँ। मुझे बाहर नहीं निकालता वो रंगरेज। मैं दर्द से मर गया हूँ। ये कितना निष्ठुर रंगरेज है और हमारी बात, जो हम कह नहीं सकते इससे। क्या, ये कभी समझ पायेगा?

अब, मैं सोचने लगी। हम सब भी तो मात्र इक़ कोरे कपड़े ही है। ऊपर बैठा वो रंगरेज हमें जैसे चाहे रंग दे। उसके रंग कितने अच्छे कितने सच्चे। वो हम सभी को अलग -अलग रंगों में रंगता है। हम सभी, इक़ दूजे से कितने अलग। कोई किसी से मेल नहीं खाता। चेहरे अलग। फ़ितरत अलग। आवाज़ अलग। अंदाज़ अलग। किसी का रंग किसी से नहीं मिलता। किसी का ढंग किसी से नहीं मिलता। सभी विशेष। सभी अनोखे। क्या खूब बनाया ।

कितने, रंग उसके पास। कितने ढंग उसके पास। कैसा संग उसका? कैसा चलन उसका? कौन जाने? कितना जाने? हाँ सभी कोरे कपड़े की गठरियाँ है। कब किसकी बारी आये वही जाने। हम जिस रंग के है उस रंग का कोई दूजा क्यों नहीं मिलता? हम जिस ढंग के हैं वैसा कोई और क्यों नहीं दिखता? इस ऊपर बैठे रंगरेज़ से हम सभी इतने नाराज़ क्यों? फिर भी उससे मिलने की आस क्यों? वो दिखता नहीं फिर भी आसपास क्यों?

ओ, रंगरेज़****सुनो ना... तुम खूब हो। तुम्हारे रंग भी बड़े खूब हैं। लेकिन ये बताओ क्या कभी कोई रंग तुम पर भी किसी का कोई रंग चढ़ा है? तुम कभी किसी के रंग में रंगे हो? क्या कभी तुम्हारे भीतर किसी का कोई रंग बहता है? चलो मत बताओ ये तो बताओ की हम तुम्हे तुम्हारे इस मेहनताने की क्या कीमत दे? क्या रंगाई है तुम्हारी?

जो, हम पर अपना रंग चढ़ा दे। जो हमें इक़ नए रूप में बदल दे। उस रंगरेज को कोई क्या दे भला? देह हो या मन। दोनों तुम्हारी रचना। इनमे से तुम जो चाहे वो ले सकते हो। या तो मन? या देह? या दोनों? ये फैसला रंगरेज़ खुद करे। इक़ गीत की पंक्तियाँ हैं। रंगरेज़ा, रंग मेरा मन, मेरा तन। ये ले रंगाई चाहे मन? चाहे तन?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें