शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

मैं तुझे फिर मिलूँगी......

मैं तुझे फिर मिलूँगी



मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे कैनवास पर बिछ जाउँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं

मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेत लुंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी !!

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

अग्नि-कविता

अग्नि-कविता

एक अग्नि-कविता तुम्हारे लिए
इसे दीये की भांति सहेज लेना
एक लौ-हृदय जो शायद
तुम्हारा हृदय भी लौ कर दे
अग्नि से सर्वस्व भर दे
उस नाड़ी में जिसमें प्रज्ज्वलित हो
रुधिर भी
उन साँसों में जिनमें यज्ञ का
आह्वान उठे
उस अग्नि-कविता को अंजुरि में
सहेज लेना
जब तुम्हारा मुख दीप्तिमान हो
तुम्हारा प्रकटन कान्ति
उस लौ-हृदय को भीतर
आत्मसात कर लेना
इन चिंगारियों को कुछ क्षण
अंदर सुलगने देना
एक अग्नि-कविता तुम्हारे लिए
एक अग्नि-कविता तुम्हारे लिए.....