आनंद मरा नहीं… आनंद मरते नहीं
कल छुट्टियों का पहला दिन था । अभी सोच ही रही थे कि आज क्या-क्या करूँगी ।
टी0वी0 ऑन कर बैठी । चैनल बदलते-बदलते देखा
एक चैनल पर “हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्मित और निर्देशित 1971 की फ़िल्म “आनंद”
आ रही थी । देखते-देखते फिल्म में ऐसे डूबी कि समय का पता ही नहीं चला
और इस महान फिल्म ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया । एक बहुत ही मार्मिक फ़िल्म
है। तमाम किस्म की मानवीय भावनाओं का इतना सूक्ष्म और सक्षम चित्रण कम ही हिन्दी
फ़िल्मों में हो पाया है। मेरे विचार में “आनंद” को भावनात्मक हिन्दी फ़िल्मों में
शायद सबसे अधिक सशक्त माना जा सकता है। इस फ़िल्म को
देखकर स्त्री हो या पुरुष –सभी सिनेमा हॉल में रो दिया करते
थे। मैंने खुद भी इस फ़िल्म को पाँच-छह बार देखा है –और हर बार दिल भर आया। “आनंद” को
इतना तीक्ष्णता देने में कई लोगों का हाथ रहा –लेकिन सबसे
बड़ा योगदान स्वयं आनंद उर्फ़ राजेश खन्ना का था।
हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार माने जाने वाले राजेश खन्ना को मैं
अपने श्रद्धासुमन “आनंद” पर इस लेख के ज़रिए अर्पित कर रही हूँ। राजेश खन्ना ने ही फ़िल्म में
आनंद के आशा और उत्साह से भरे चरित्र को अमर किया था।
“लिम्फ़ोसार्कोमा ऑफ़ द इंटेस्टाइन… वाह,
वाह… क्या बात है, क्या
नाम है! ऐसा लगता है जैसे किसी वॉयसराय का नाम हो! बीमारी हो तो ऐसी हो नहीं तो
नहीं हो!” … आनंद फ़िल्म के कई मशहूर संवादों में
से एक यह भी था। यह संवाद आनंद की जिजीविषा को दर्शाता है और उसे दर्शकों के समक्ष
एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है जिसके लिए “मुश्किल”
नामक किसी शब्द का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह हर ग़म में, हर दर्द में मुस्कराना जानता है।
आंतो के कैंसर से पीड़ित होने के बावज़ूद जीवन को भरपूर जीने की इच्छा आनंद
के चरित्र का मूलाधार है। उसे मालूम है कि इस दुनिया में उसके गिने-चुने दिन शेष
हैं (वैसे हममें से किसे यह मालूम नहीं होता?) इसलिए वह अपने हर क्षण का भरपूर उपयोग लोगों के बीच
खुशियाँ बांटने में करना चाहता है (सत्य जानने के बावज़ूद हममें से कितने लोग आनंद
की इस फ़िलॉसफ़ी को अपना पाते हैं?)
यह फ़िल्म हमें सोचने और महसूसने के लिए बहुत कुछ देती है। फ़िल्म के खत्म होते-होते हमारी
भावनाओं की ज़मीन पर अनगिनत विचारों के अंकुरों की फ़सल तैयार हो चुकी होती है जिसे
हम आने वाले कई दिन तक सींचते या काटते रहते हैं। मैंने जब भी इस फ़िल्म को देखा तो
हर बार सोचा है कि क्या जिस आनंद को हम फ़िल्म में देखते हैं वह वैसा इसलिए है
क्योंकि उसे मालूम है कि वह कुछ ही दिन में इस जहाँ से चला जाएगा। फ़िल्म में आनंद
के बीमारी होने से पहले का एक सीन है –जिसमें उसे अपनी
प्रेमिका से बात करते दिखाया जाता है। मेरे ख्याल में बीमारी से पूर्व आनंद के मन
में भी सैंकड़ो ख़्वाब होंगे। शादी, बच्चे, घर, करियर इत्यादि…लेकिन
बीमारी के बाद के जिस आनंद को हम जानते हैं उसके मन में केवल एक ख्वाब है: दुनिया
को कुछ देकर जाने का ख्वाब। आनंद के पास देने के
लिए खुशी और उम्मीद के अलावा और कुछ नहीं है –सो वह वही
बांटता है जो उसके पास है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि खुशी और उम्मीद स्वयं
आनंद के जीवन में कोई मायने नहीं रखती। खुशियाँ उसकी समाप्त हो चुकी हैं और मौत की
स्पष्ट आहट ने उम्मीद को भी मार दिया है। इसलिए वह दूसरों को खुशी और उम्मीद देकर
अपना जीवन जीता है। आनंद की संवेदनशीलता इस संवाद में बखूबी झलकती है: “तुझे क्या आशीर्वाद दूं बहन? ये भी तो नहीं कह सकता
कि मेरी उम्र तुझे लग जाए”
आनंद के चरित्र की इन विशेषताओं को अपनाना कोई मुश्किल काम नहीं है लेकिन
फिर भी कोई विरला
इंसान ही ऐसा कर पाता है। यह एक लोकप्रिय प्रश्न है
कि यदि आपको यह पता चल जाए कि आपके जीवन में बस पाँच मिनट ही शेष बचे हैं तो आप इन
पाँच मिनट में क्या करेंगे? इस प्रश्न के उत्तर में आप जिन
भी चीज़ों को करने के बारे में सोचते हैं –दरअसल वही चीज़ें
आपके जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण होती हैं। हमारे जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण
क्या है –यह जानना कितना आसान है ना! लेकिन फिर भी हम अपना
अधिकांश जीवन उन चीज़ों को करते हुए बिताते हैं जो हमारे लिए उतनी महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं। कैसी विडम्बना है! शायद इसी का नाम माया है जो हमारी बुद्धि पर पर्दा
डाले रहती है।
डॉक्टर भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) का चरित्र फ़िल्म की शुरुआत से लेकर
आखिर तक एक बड़े बदलाव से गुज़रता है। ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयों से हताश और कुछ हद
तक पत्थर हो चुका भास्कर बैनर्जी आनंद के निर्मल मन की कोमलता से बच नहीं पाता और आखिरी सीन में आनंद की मौत पर
एक बच्चे की तरह रोता पाया जाता है। आनंद की देह मर
गई; लेकिन जाने से पहले उसने स्वयं को कितने ही लोगों के
जीवन का हिस्सा बना दिया। इसीलिए भास्कर ने कहा कि:
आनंद
मरा
नहीं…
आनंद
मरते
नहीं.......