मंगलवार, 29 जनवरी 2013


छत की मुंडेर पर,
बैठे थे तीन बंदर,
उनको देख हूक-सी उठी
दिल के अंदर,
आंखों में गांधी की तस्वीर झूल गई,
कुछ पल के लिए मेरी आत्मा,
खुद मेरे शरीर को भूल गई,

वे मेरी थाली में पड़ी रोटी को,
बड़े गौर से देख रहे थे,
बार-बार अपना मत्था,
मुंडेर पर टेक रहे थे,
मैंने अपनी रोटी,
उनके हवाले कर दी,
उनकी उम्मीदों की झोली भर दी,

वे मेरी दी रोटी नहीं खा रहे थे,
बार-बार उनके हाथ,
आसमान की ओर जा रहे थे,
खुले आसमान में,
गिद्धों का एक झुंड,
चक्कर काट रहा था,
बंदरों का भावुक दिल,
उनकी मंशा को भांप रहा था,

बंदरों ने एकाएक रोटियों को,
आसमान की ओर उछाला,
गिद्धों ने फुर्ती से उन्हें संभाला,
रोटियां पाकर,
नजरों से ओझल हो गए,
नजर घुमाई तो,
बंदर भी न जाने कहां खो गए,
पेट की भूख,
इंसान, जानवर, हैवान को,
एक माला में पिरो गई,

बंदरों की हरकत,
स्वर्ग में बैठे,
गांधी के नैनों को भिगो गई,
नजरों से मिली नजर,
दिल से दिल की बात हो गई,
गांधी के बंदरों से,
आज मुलाकात हो गई

शनिवार, 26 जनवरी 2013


गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक विचारणीय प्रश्न


पिछले कुछ वर्षों में इस विभाजन को स्पष्ट देखा जा सकता है!हमारा देश बहुत तेज़ी से बदल रहा है...लेकिन इसके दोनों चेहरे बहुत साफ़ साफ़ देखे जा सकते है!.पहला तो वह आधुनिक इंडिया है..जिसमे आसमान छूती इमारतें है,साफ़ सड़कें और बिजली से जगमगाते शहर हैं..! सड़क पर दौड़ती महँगी गाडियाँ विदेश का सा भ्रम पैदा करती है ! यहाँ लोग सूट बूट पहने शिक्षित हैं जो आम बोलचाल में भी अंग्रेज़ी बोलते हैं...! बड़े बड़े होटल ,मॉल और मल्टी प्लेक्स किसी सपने जैसे लगते हैं..! यहाँ के लोग इंडियन कहलवाना पसंद करते हैं...! यह हमारे देश का आधुनिक रूप है जो एक सीमित क्षेत्र में दिखाई देता है...! और इस चकाचौंध से दूर कहीं एक भारत बसा है जो अभी भी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है..! यहाँ अभी सड़कें, होटल मॉल नहीं हैं..बिजली भी कभी कभार आती है...! यहाँ के लोग सीधे सादे है जो बहुत ज्यादा शिक्षित नहीं हैं, इसलिए इन्हें अपने अधिकारों के लिए अक्सर लड़ना पड़ता है..! इस भारत और इंडिया को देख कर भी अनदेखा करने वाले नेता हैं जो हमेशा अपना हित साधते रहते हैं ! लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि हमारी 70 % आबादी अभी भी गाँवों में रहती है । इन भारत वासियों के लिए न फिल्में बनती हैं ना कार्यक्रम ...! सभी लोग बाकी 30 % आबादी को खुश करने में लगे हैं....! तभी तो देखिये वर्षा न होने पर जहाँ लोग रो रहे होते हैं ,सूखे खेतों को देख कर किसान तड़पते होते हैं...दाने दाने को मोहताज़ हो जाते हैं ..! वहीं ये इंडियन रेन डांस करने जाते हैं ..इनके लिए कृत्रिम बरसात भी हो जाती है...! क्या कभी पिज़्ज़ा खाने वाले लोग उन भारतवासियों के बारे में सोचेंगे जो एक समय आज भी भूखे सोते हैं ???? क्या कभी हमारे नेता इन ऊंची इमारतों के पीछे अंधेरे में सिसकती उन झोंपड़ पट्टियों को देख पाएंगे जो इंडिया पर एक पैबन्द की भांति है....! इन में रहने वालों और गाँवों में रहने वालों में कोई अन्तर नहीं है.....!     यहाँ बसने वाला ही सही भारत है जिसे कोई इंडियन देखना पसंद नहीं करता,लेकिन जब ये सुखी होंगे तभी इंडियन सुखी रह पाएंगे...इस इंडिया और भारत की दूरी को पाटना बहुत ज़ारूरी है....! ये दोनों मिल कर ही देश को विकसित बना सकते है....


शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

'जन गण मन'


रग-रग में जोश भरता 'जन गण मन'

राष्ट्रगीत हो या राष्ट्रध्वज देशवासियों के आन-बान और शान के साथ प्रेरणा स्रोत होता है। जो राष्ट्रीय सार्वभौमिकता का प्रतीक है। राष्ट्र के सम्मान का राष्ट्रगान "जन गण मन" तमाम हिन्दुस्तानियों की शान और जोश का संचार करने वाला ऐसा ही राष्ट्रगान है जो रग-रग में जोश भरता है। 
दुनिया की अव्वल सर्च इंजन वेबसाइट गूगल के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र की शैक्षणिक, वैज्ञानिक व कला से जु़ड़ी वैश्विक संस्था यूनेस्को ने दुनिया की अव्वल सर्च इंजन वेबसाइट गूगल के माध्यम से यूनेस्को एंड इंडिया नेशनल एंथम की साइट पर "जन गण मन" को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान बताया हैं। आर्थिक-सामाजिक नजरिए से परिपूर्ण इस राष्ट्रगान में सांप्रदायिक सद्भाव झलकता है। 
राष्ट्रीयता से ओतप्रोत इस राष्ट्रगीत को बंगाली साहित्यकार और नोबल पुरस्कार से सम्मानित गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने दिसंबर 1911 में लिखा जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोलकाता सालाना अधिवेशन में यानी 27 दिसंबर 1911 को गाया गया। रवींद्रनाथ टैगोर संपादित 'तत्वबोधिनी' पत्रिका में "भारत विधाता" शीर्षक से जनवरी 1912 में पहली दफा यह गीत मशहूर हुआ। खुद रवींद्रनाथ टैगोर ने इसका अंग्रेजी अनुवाद 'दि मॉर्निंग सांग ऑफ इंडिया' शीर्षक से 1919 में किया था और इसके हिन्दी अनुवाद को 24 जनवरी 1950 में राष्ट्रगान का दर्जा प्रदान किया गया।
 

'जन गण मन' में लबरेज राष्ट्रीयता की पोषक, स्फूर्तिदायक भावना को ध्यान में रखते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपनी आजाद हिंद फौज में 'जय हे' नाम से इस गीत को स्वीकार किया। आजादी की जंग के दौरान 'वंदे मातरम' इस राष्ट्रीय गीत ने हिन्दुस्तानी आजादी की जंग में चैतन्य पैदा कर दिया था।
 

लेकिन फिर भी कुछ अपरिहार्य कारणों के चलते इसे राष्ट्रगान के बतौर भले ही स्वीकार न किया जा सका, लेकिन भारतीय जनमानस में राष्ट्रगान जितनी ही अहमियत 'वंदे मातरम्‌' को भी हासिल है। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। उस वक्त हमारे पास अपना राष्ट्रगान नहीं था।
 

आजाद हिन्दुस्तान संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य था। जिसके चलते संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यक्रम में भारतीय शिष्टमंडल को भी आमंत्रित किया गया। इस शिष्टमंडल को हिन्दुस्तान के राष्ट्रगान को संयुक्त राष्ट्र संघ कार्यक्रम में पेश करने के लिए कहा गया। लेकिन राष्ट्रगान तो अस्तित्व में ही नहीं था, सो भारत सरकार ने रवींद्रनाथ टैगोर लिखित 'जन गण मन' गीत को कार्यक्रम में पेश करने हेतु स्वीकार किया।
 

संयुक्त राष्ट्र संघ में यह राष्ट्रगान बेहद कामयाब रहा। जिसे ध्यान में लेते 24 जनवरी 1950 को भारत की संविधान समिति में 'जन गण मन' को भारत के राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया। इस पूरे राष्ट्रगीत में 5 पद हैं। प्रथम पद, जिसे सेनाओं ने स्वीकार किया और जिन्हें साधारणतया समारोहों के मौकों पर गाया जाता है।
 

आज जब देश महासत्ता बनने की दौ़ड़ में कदम बढ़ाते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कामयाबी की बुलंदियों को छू रहा है, तब इसके विकास की बुनियाद भौतिक विकास, नैतिक तत्वज्ञान और आदर्श के मूलभूत सिद्घांतों और सार्वभौमिकता के मूल्यों पर आधारित होना बेहद जरूरी है। जिन मूल्यों का दिव्यभव्य प्रतीक है देश का राष्ट्रगान
'जन गण मन'

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

बलिदान चाहिए


बलिदान चाहिए
मेरे देश को भगवान नहीं,सच्चा इंसान चाहिए,
गांधी-सुभाष जैसा बलिदान चाहिए।

इंसानियत विलख रही इंसान ही के खातिर,
इंसाफ दे सके जो ऐसा सत्यवान चाहिए.....
मेरे देश को भगवान नहीं सच्चा इंसान चाहिए।

बचपन यहां पे देखो बन्धुआ बना हुआ है,
दिला सके जो इनको मुक्ति ऐसा दयावान चाहिए....
मेरे देश को भगवान नहीं सच्चा इंसान चाहिए।

मुखौटों के पीछे क्या है कोई जानता नहीं है,
दिखा सके जो असली चेहरा ऐसा महान चाहिए....
मेरे देश को भगवान नहीं सच्चा इंसान चाहिए।

रोज़ मर रहे हैं यहां कुर्सी के वास्ते,
जो देश के लिए जिए-मरे,ऐसा इक नाम चाहिए....
मेरे देश को भगवान नहीं सच्चा इंसान चाहिए।

सदियों के बाद भी जो इंसां न बन सकी है,
समझ सके जो इनको इंसान,ऐसा कद्र दान चाहिए...
मेरे देश को भगवान नहीं सच्चा इंसान चाहिए।

मेहनत से नाता टूटा सब यूं ही पाना चाहें,
गीतोपदेश वाला कोई  श्याम  चाहिए...
मेरे देश को भगवान नहीं सच्चा इंसान चाहिए।

बुधवार, 16 जनवरी 2013

और वो शहीद कहलाते हैं


शहीद
कई लोग जीते जी मर जाते हैं
वो मर कर भी जी जाते हैं,
मौत क्या मार सकेगी उनको
क्योंकि वो दूसरो के खातिर वीरगति को पाते हैं
और  वो  शहीद कहलाते हैं,
जब हम बूँदों से नहाते हैं,तितली से इठलाते हैं
हवाओँ से मुस्कराते हैं
वो हमारे लिये चुपचाप तप जाते हैं,
तीसरी आँख बन हमें राहें दिखाते हैं,
नज़र ना लगे हमें किसी कि


इसलिये अपनी जान से, उसी शान  से वो ढाल बन जाते हैं,
सूरज से  दीवाने हैं, चांद से सुहाने हैं
बर्फ़ के अंगारे हैं, रातों के तारे हैं
पर जब देश पर खतरा मँडराता हैं
दुश्मन से डर सताता हैं
वो फोलाद के रथ पर अर्जुन बन जाते हैं
अपनी माँ को भूल कर दूसरों का चमन महकाते हैं,
साल बीतते हैं सदियाँ निकलती जाती हैं
वो असाधारण हैं सूरज से अमर हो जाते हैं,
और  वो  शहीद कहलाते है......
यादें सिमटती हैं, इतिहास बदलते हैं, पन्ने पलटते हैं
शहीद चमकते हैं ,शहीद दमकते हैं
चेहरे याद नहीं हैं, फिर भी वो महकते हैं,
वो खेत की मिटटी बन जाते हैं
शहर के चौराहों पर दिख जाते हैं
आसमान के बादलो में उन्हें पाते हैं
हवाओं में घुल जाते हैं
हम तो रोज़ मरते हैं
पर वो मर कर भी जी जाते हैं
और वो शहीद कहलाते  हैं............