मंगलवार, 29 जनवरी 2013


छत की मुंडेर पर,
बैठे थे तीन बंदर,
उनको देख हूक-सी उठी
दिल के अंदर,
आंखों में गांधी की तस्वीर झूल गई,
कुछ पल के लिए मेरी आत्मा,
खुद मेरे शरीर को भूल गई,

वे मेरी थाली में पड़ी रोटी को,
बड़े गौर से देख रहे थे,
बार-बार अपना मत्था,
मुंडेर पर टेक रहे थे,
मैंने अपनी रोटी,
उनके हवाले कर दी,
उनकी उम्मीदों की झोली भर दी,

वे मेरी दी रोटी नहीं खा रहे थे,
बार-बार उनके हाथ,
आसमान की ओर जा रहे थे,
खुले आसमान में,
गिद्धों का एक झुंड,
चक्कर काट रहा था,
बंदरों का भावुक दिल,
उनकी मंशा को भांप रहा था,

बंदरों ने एकाएक रोटियों को,
आसमान की ओर उछाला,
गिद्धों ने फुर्ती से उन्हें संभाला,
रोटियां पाकर,
नजरों से ओझल हो गए,
नजर घुमाई तो,
बंदर भी न जाने कहां खो गए,
पेट की भूख,
इंसान, जानवर, हैवान को,
एक माला में पिरो गई,

बंदरों की हरकत,
स्वर्ग में बैठे,
गांधी के नैनों को भिगो गई,
नजरों से मिली नजर,
दिल से दिल की बात हो गई,
गांधी के बंदरों से,
आज मुलाकात हो गई

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