बुधवार, 27 मार्च 2013

सपने



सपने बुनती हूँ, टूट जाते हैं,
टूटकर बिखर जाते हैं,
उनमें से एक टुकड़ा चुनकर,
फिर सपने बुनने लगती हूँ
आशाएँ जगाती हूँ, टूट जाती है,
निराशा आती है,
दुख के काँटों के बीच,
सुख के कुछ फूल चुनने लगती हूँ…..
प्रयास करती हूँ, विफल हो जाते हैं,
सहम जाती हूँ,
विफलता के अन्धकार के उस पार,
रोशनी की किरण ढूँढने लगती हूँ……
नियति की सुनती हूँ, हार जाती हूँ,
थम जाती हूँ,
चुपचाप हाथ पर हाथ रख,
 
फिर हिम्मत जुटाने लगती हूँ
फिर सपने बुनने लगती हूँ
फिर सपने बुनने लगती हूँ



गुरुवार, 21 मार्च 2013

प्रकृति


हो लें प्रकृति के साथ.....
अकेलापन कभी-कभी अपने आप में बहुत सुखद लगता है, अक्‍सर ये हमें अनायास ही प्रकृति‍ से जोड़ देता है। कई बार आपको लगा होगा जैसे मीलों कहीं दूर नि‍कल जाएँ, हवा की सरसराहट के साथ, पत्तों की टकराहट को सुनते हुए, कहीं दि‍शाहीन हो जाएँ। और अचानक अपने आपको सि‍र्फ़ और सि‍र्फ़ प्रकृति‍ के साथ पाएँ।

प्रकृति वास्‍तव में मानव की सच्‍ची सहचरी है। जब कोई आपके साथ नहीं होता तो आप प्रकृति‍ के साथ हो लेते हैं या शायद वह आपके साथ हो लेती है। मनुष्‍य जीवन में जो कमी प्रकृति‍ पूरी कर सकती है वो कोई दूसरा नहीं कर सकता। हम अपने भौति‍क जीवन की आपाधापी में भले कभी प्रकृति‍ के बारे में सोचना भूल जाएँ लेकि‍न यह हमेशा हमें अपने होने का एहसास कराती है। प्रकृति‍ माँ की तरह हमें अदृश्‍य रूप में सब कुछ देती है। मई-जून की कड़ी धूप और गरम हवाओं से जब हम झुलस जाते हैं तो अचानक ही वह बादलों का आंचल हमें उढ़ा देती है और बारि‍श की पहली फुहार से सारी उष्‍णता हर लेती है।

बहुत भाग्यशाली हैं हम जो मनुष्‍य रूप में इस इतनी अद्भुत, इतनी सुंदर प्रकृति‍ के दर्शन कर पाते हैं, उसे अनुभव कर पाते हैं, उसका आनंद ले पाते हैं। दूसरी तरफ़ उन लोगों के प्रारब्‍ध पर पछतावा भी होता है जो इसे देख नहीं सकते, सि‍र्फ महसूस कर सकते हैं।

प्रकृति‍ और साहि‍त्य का संबंध तो अटूट और प्रमाणि‍क माना जाता है। बहुत से कवियों, लेखकों और साहि‍त्‍यकारों ने अपनी कालजयी रचनाएँ प्रकृति‍ के सान्‍नि‍ध्‍य में लि‍खीं। जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमि‍त्रानंदन पंत और रामकुमार वर्मा जैसे कवि‍यों को तो प्रकृति उपासक कवि कहा जाता है। प्रकृति‍ ने ही लोगों कवि‍, शायर और चि‍त्रकार बनाया है।

आमतौर पर हम झरनों की कल, पक्षि‍यों का कलरव, अनेक प्रकार के अन्‍न, फूलों की महक, बारि‍श की बूंदों, ठंडी हवाओं और पेड़ों के झूमने को ही प्रकृति‍ कहते हैं। लेकि‍न वास्‍तव में प्रकृति‍ अपने अनगि‍नत रूपों के साथ हमारे बीच वि‍द्यमान है। जहाँ वह एक ओर अपने मातृ सुलभ प्रेम को उपर्युक्त सभी रूपों में प्रदर्शि‍त करती है तो दूसरी तरफ बि‍जली, तूफान, आँधी, बवंडर, भूकंप, चक्रवात, ज्वालामुखी जैसे रौद्र रूपों में भी हमारे सामने आती है। ठीक वैसे ही जैसे माँ अपने बच्‍चे की शैतानि‍यों से तंग आकर व अपने धैर्य की पराकाष्‍ठा हो जाने पर उस पर बरस पड़ती है।

कवि‍यों की बात ओर है वह तो शीतल बयार को भी अपनी कवि‍ता का वि‍षय बना सकते हैं और आक्रांत ज्‍वालामुखी को भी। लेकि‍न, साधारण मनुष्‍य को अपने जीवन में सबकुछ साधारण, सरल और शांत हो ऐसी अपेक्षा होती है। सागर में आवाजाही करती लहरों को वो दूर से देखना पसंद करता है। क्‍योंकि‍ डूबते हुए को बचाना तो मुमकि‍न हो जाता है लेकि‍न जि‍से बहाव अपने साथ खींच ले उसका क्‍या कहा जा सकता है।

प्रकृति मानवीय संवेदनाओं में रची बसी है। जब भी हम दुखी होते हैं तब भी प्रकृति‍ की शरण लेते हैं और जब खुश होते हैं तब भी प्रकृति‍ का ही साथ चाहते हैं। कभी महसूस करके देखि‍ए ये आपके साथ रोती है और आपके साथ हँसती भी है



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बुधवार, 20 मार्च 2013

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है


जीवन
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है
भविष्य सुधारने के लिए आप क्या करते हैं? सपने देखते हैं और उसे साकार करने की कोशिशें करते हैं। सपने साकार हुए तो अच्छा और टूट गए तो …..? डर यहीं होता है, घबराहट यहीं होती है। भविष्य संवारने के सिलसिले में मैं अपने ब्लाग पर गोपाल दास नीरज की उस कविता को रख रही हूँ, जिसमें उन्होंने फरमाया है कि कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है, चंद खिलौने के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। सो, मित्रों परम आदरणीय, सुप्रसिद्ध कवि व गीतकार नीरज जी के प्रति पूर्ण सम्मान भाव के साथ उनकी रचना मैं यहां अपनी श्रृंखला में ऱख रही हूँ । इस आशा के साथ कि भविष्य संवारने की दिशा में जुटे लोगों में इससे कुछ आशाओं का संचार हो पाए। सो पेश है गोपाल दास नीरज की यह अमर रचना -

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों
मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी

गीली उमर बनाने वालों
डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से
सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गई तो क्या है
खुद ही हल हो गई समस्या
आंसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या

रुठे दिवस मनाने वालों
फटी कमीज सिलाने वालों
कुछ दीयों के बुझ जाने से
आंगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहां पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती

वस्त्र बदलकर आने वालों
चाल बदलकर जाने वालों
चंद खिलौनों के खोने से
बचपन नहीं मरा करता है

मंगलवार, 19 मार्च 2013

जीवन संघर्षो से न घबराना मनुष्यता है


जीवन संघर्षो से न घबराना मनुष्यता है
                  कई विचारकों का मत है कि अगर हम कोई जोखिम नहीं लेते हैं, तो वह अपने-आप में सबसे बड़ा जोखिम है। यह सही भी है कि ज़्यादातर लोग जोखिम लेने से डरते हैं। इसकी कई वजहें होती हैं, लेकिन जो सबसे बड़ी वजह है, वह है संकल्प और विचार शक्ति की कमी ।
                  कहने को तो विचार शक्ति और संकल्प का अभाव जानवरों में होता है, पर जब कोई इंसान बिना विचारे कोई ऐसा काम कर बैठता है, तो कहा जाता है कि वह तो निरा पशु हो गया है। यानी इंसान होकर भी अगर पशुओं जैसी जिंदगी जीएं, तो जीना क्या और मरना क्या ?  इसीलिए वेद में कहा गया है- " मनुर्भव, यानी मनुष्य बनो। " इसका मतलब हे कि महज इंसान के वेश में हम इंसान सही मायने में तब तक नहीं होते, जब तक हमारे अंदर इंसानियत के सद् गुण पैदा नहीं होते और जब तक हम अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते।
                  विज्ञान के मत में इंसान जब से धरती पर पैदा हुआ है, लगातार प्रगति कर रहा है। यह प्रगति इंसान को जानवरों से अलग करती है। धर्म भी कहता है कि इंसान का जन्म लेना, तभी सार्थक है, जब उसमें मनुष्यत्व और देवत्व के रास्ते पर बढ़ने की इच्छाशक्ति और साधना हो। बहरहाल, जोखिम उठाना और जोखिम लेने से घबराना, दोनों ही प्रवृत्तियां इस बात को तय करती हैं कि हम में कितनी इंसानियत बाकी है । हर इंसान में पशुता, मनुष्यता और देवत्व के गुण होते हैं। शिक्षा, संस्कार, विचार ओर संकल्प-शक्ति जिस व्यक्ति में जिस रूप में होती है, वह उसी तरह बन जाता है । दरअसल, हमारे मस्तिष्क की बनावट ऐसी है, जिसमें विचारों की अनंत संभावनाएँ होती है। लेकिन एक आम इंसान अपनी शक्तियों का एक या दो प्रतिशत ही इस्तेमाल करता है। शक्तियों के समुचित इस्तेमाल नहीं होने के कारण ही किसी व्यक्ति के बेहतर इंसान बनने की संभावना कम होती है। यही वजह है कि ज़्यादातर लोग पूरी ज़िंदगी पशुओं की तरह ही सिर्फ़ सोने-खाने में बिता देते है।
               पर यहां सवाल यह है कि क्या जोखिम उठाना हमेशा लाभदायक होता है?  कभी-कभी तो तमाम जोखिम उठाकर भी लोग ऐसा कार्य कर डालते है, जो न उनके लिए लाभदायी होते है, न परिवार और समाज के लिए, इस बारे में यह कहना उचित होगा कि ऐसा जोखिम उठाना इंसानी संघर्ष का नमूना नहीं, बल्कि शैतान प्रवृत्ति का प्रतीक है। इसलिए जोखिम उठाने से पहले यह विचार ज़रूर कर लेना चाहिए कि वह हितकरी हो सकता है या अहितकारी। मौजूदा वक्त में आतंकवादियों, नक्सलवादियों या इसी तरह की प्रवृत्ति वाले अपराधियों द्वारा हिंसा के सहारे कोई मकसद हासिल करने का काम शैतानी जोखिम के दायरे में आता है। ऐसे जोखिम भरे कार्यों से सभी को नुकसान ही होता है।
            गांधी जी ने कहा था कि " साध्य और साधक " की पवित्रता से ही व्यक्ति की सफलता का ठीक-ठीक मूल्यांकन हो सकता है। मौजूदा दौर में ज़्यादातर लोगों के " साध्य " और "साधन" दोनों ही अपवित्र हो गए हैं। इसलिए जो कुछ हासिल हो रहा है, उसे मानवीय संघर्ष का परिणाम नहीं कह सकते हैं। यानी जोखिम ज़रूर उठाएँ, लेकिन साथ ही, यह भी देखा जाए कि यह जोखिम भरा काम खुद के लिए, समाज के लिए राष्ट्र और समूचे संसार के लिए सकारात्मक है या नकारात्मक।
              यह कैसे तय हो कि कौन सा काम सकारात्मक नतीजे वाला हो सकता है और कौन सा नकारत्मक नतीजे वाला ?  यानी किस काम को किया जाए और किसे छोड़ा जाए ?  इसका जवाब यह है कि महापुरूषों के आचरण और वेद-पुराणों में दिए गए दृष्टांत इस काम में हमारी मदद करते हैं। उनके मार्गदर्शन से हम सही या गलत का फैसला कर सकते हैं।
              अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए जीवन संघर्ष से घबराए बिना जब हम एक सकारात्मक नतीजे दे सकने वाले जोखिम का चुनाव करते हैं, तो वास्तविक अर्थों में हम हर प्रकार से दैहिक, भौतिक संकट को दूर कर सकते है। यही सच्ची मनुष्यता है और मनुष्य होने के नाते हमें इसी नीति का पालन करना चाहिए ।

सोमवार, 11 मार्च 2013

मैं खुश होती हूँ


मैं खुश होती हूँ , जब कोई सपना देखती हूँ
मैं खुश होती हूँ जब उसे साकार होते हुए देखती हूँ ..
अगर विफल हो जाती हूँ तो कारण सोचती हूँ
फिर, सोचते-सोचते एक नयी दुनिया में भी पहुँच जाती हूँ..
बहुत समय तक इस दुनिया से कट जाने के बाद
मैं खुद को झकझोर के उठाती हूँ
पूछती हूँ खुद से, के

क्यों नही मैं वो पा पाती हूँ
जिसे सबसे ज्यादा पाने को अकुलाती हूँ
,
व्याकुल नैना रहते है हर पल निराश
फिर करते है वो अपने इष्ट देव को याद
प्रभु के सुमरन से ही कर पाती हूँ , मैं खुद को तैयार
फिर लग जाती हूँ देखने उस सपने को हज़ार बार
और फिर से खुश होकर तैयार हो जाती हूँ
भरने को एक नई और ऊँची उड़ान
..
और ऊँची....
और ऊँची उड़ान.......