बुधवार, 27 मार्च 2013

सपने



सपने बुनती हूँ, टूट जाते हैं,
टूटकर बिखर जाते हैं,
उनमें से एक टुकड़ा चुनकर,
फिर सपने बुनने लगती हूँ
आशाएँ जगाती हूँ, टूट जाती है,
निराशा आती है,
दुख के काँटों के बीच,
सुख के कुछ फूल चुनने लगती हूँ…..
प्रयास करती हूँ, विफल हो जाते हैं,
सहम जाती हूँ,
विफलता के अन्धकार के उस पार,
रोशनी की किरण ढूँढने लगती हूँ……
नियति की सुनती हूँ, हार जाती हूँ,
थम जाती हूँ,
चुपचाप हाथ पर हाथ रख,
 
फिर हिम्मत जुटाने लगती हूँ
फिर सपने बुनने लगती हूँ
फिर सपने बुनने लगती हूँ



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