सोमवार, 22 नवंबर 2010

बेटी


वह घर भी क्या घर है
जिसमें बेटी नहीं होती ।
उसकी मुस्काने-लीलाएं नहीं होती ।
वह एक खुशबू है,
जो कोना-कोना घर का महकाती है,
वह हंसती-मुस्काती-किलकाती है,
घर को जीवंत बनाती है,
रूठती-अएंठती-रूती है,
कठोरतम दिलों को
पिघलाती है ।
वह गुलाब की कोमलता है,
उषा की लालिमा है,
मता-पिता की प्राण है,
कुटुंब की आन-बान-शान है,
और रत्नों की खान है,
कोयल की तान है,
तो कवि-कल्पना का गान है,
पिता-पति दोनों कुलों के मध्य
वह एक सुंदर सेतु है,
प्रकृति में नित नए
सृजन की,
हेतु है ।
वह शक्ति है,
वह भक्ति है,
मर्यादाओं की पुंज है
घोर नीरवता में मधुर गूंज है,
शीतल समीर है वह,
होली का अबीर है वह,
ताज़गी का स्फुरण है वह,
शांत सौम्य संगीत है वह,
जीवन की आस है वह,
जीने का विश्वास है वह

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