बुधवार, 10 नवंबर 2010

O ANTARIKSH

ओ अंतरिक्ष ! तुम क्या हो ?
क्या मायावी जाल हो?
या अनजान नाव की पाल हो ?
तुम प्रकाश या अंधकार हो ?
तुम शुष्क या आर्द्र हो ?
क्या तुम परमाणु हो अणु के ? 
लगते तुम चंद्र कभी तनु से
क्या गति की परिभाषा हो ?
क्या तुम शक्ति हो आशा की ?
ओ अंतरिक्ष ! तुम क्या हो ?
क्या तुम आकाश का विस्तार हो ?
क्या प्रकृति का चमत्कार हो ?
क्या पदार्थ का कोई प्रहार हो ?
क्या ईश्वर का ही सौंदर्य अपार हो ?
ओ अंतरिक्ष ! तुम क्या हो ?
कितना कठिन है तुम्हें समझ पाना 
तुम्हारे नियन्ता को हमने न जाना
तुम गूढ़ रहस्य लघु बुद्धि मेरी
कैसे जाना तुमने लघुतम कणों में बस जाना
ओ मूर्ख मनुष्य! आंखें खोल दृष्टिपात कर,
मैं ही तुम्हारे रतजगों में प्रकाश बन कर आया
मैं ही तुम्हारी धमनियों में ऊर्जा रूप में समाया
मैं ही तुम्हारे संकल्पों में दृढ़ता बन कर आया
मैं तुम्हारे कण-कण में हूं समाया
ओ मनुष्य ! तुम में मैं हूं
मुझ में तुम हो,
आंखें बंद कर हाथ बढ़ा कर 
मुझे बुलाओ !
मेरा स्पर्श करो !
मुझसे बातें करो !
मेरा अनुभव करो !
और...............
मेरे स्निग्ध सागर में डूब जाओ
मेरे स्निग्ध सागर में डूब जाओ
मेरे स्निग्ध सागर में डूब जाओ

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